Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 226
________________ सु० प्र० ॥ १११ ॥ आत्मैव परमात्मास्ति सन्देहं चात्र मा भज ॥ ६०॥ यावत्स्वात्मस्वरूपं हि चिन्तितं न त्वयाथवा । वावस्वमसि संसारी दुःखी कर्ममयोऽशुचिः ||६|| यदा त्वं चिन्तयस्यात्मन् शुद्ध स्वात्मनि संस्थितम् । स्वात्मानं परमात्मानं पश्यसि त्वं निरञ्जनम ॥६॥ परमात्मात्मनोदो कचिन्नास्ति कदापि वा । श्रात्मैव परमात्मारित चैको नान्योऽद्वितीयकः ॥ ६३॥ तस्माद्भावय चेत्थं त्वमात्मन् सुशिवसिद्धये । श्रात्मैव मे पारात्मा हि कर्मवातिनिर्मलः ॥ ६४ ॥ आत्मैव मे च सिद्धात्मा परमात्मा महेश्वरः । तस्मात्सोऽहं भजाम्यत्र स्वात्मानं स्वपदातये ||६|| आत्मैव मे परं ज्योतिर्लोकालोकप्रकाशकः । परं सुखस्य बीजं मे श्रात्मैवास्ति न संशयः ||६६ || आत्मैव मे जगदुद्रष्टा स्रष्टा ब्रह्मा गुणाकरः । शङ्करश्च स्वयं बुद्धः परमेष्ठी सनातनः ||६७ || आत्मैव मे परं मोक्षः कर्म संहारकारकः । श्रात्मैव मे सुहग्बोधचारित्रितयात्मकः ॥६८॥ श्रात्मैव मे परमात्मा हो जाता है, इसमें तू किसी प्रकारका संदेह मत कर ||६० ॥ अथवा यों समझना चाहिये कि जबतक तूने अपने आत्माका चितवन नहीं किया है तबतक तू संसारी है, दुःखी है, कर्ममय है और अपवित्र है || ६१ ॥ हे आत्मन् ! जब तू अपने आत्मामें स्थित अपने शुद्ध आत्माका चितवन करेगा, तब तु अपने आत्माको कर्ममलसे रहित परमात्मरूप देखेगा ||६२|| आत्मा और परमात्मामें कोई किसीप्रकारका भेद नहीं है। यह एक आत्मा ही परमात्मा है । परमात्मा इस आत्मासे मिश्र वा अन्य नहीं है || ६३ || इस लिये हे आत्मन् ! तु मोक्ष प्राप्त करनेके लिये इसप्रकार चितवन कर कि वह मेरा आत्मा ही कमको नाश करनेवाला अत्यन्त निर्मल परमात्मा है ||६४ || मेरा आत्मा ही सिद्धात्मा है, वही परमात्मा है, वही महेश्वर हैं, इसलिये परमात्मस्वरूप मैं अपने आत्मपदकी प्राप्तिके लिये अपने ही आत्माका चितवन करूँगा ||६५ || मेरा आत्मा ही परम ज्योतिःस्वरूप है, लोक- अलोकको प्रकाशित करनेवाला है, तथा मेरा यह आत्मा ही परम सुखका बीज है। इसमें किसीमकारका संदेह नहीं है ॥६६॥ यह मेरा आत्मा ही जगत् को देखनेवाला है, यही जगत्को उत्पन्न करनेवाला है, यही ब्रह्मा है, यही गुणाकर हैं, यही आत्मा शंकर है, स्वयं बुद्ध है, यही परमेष्ठी है और यही सनातन है ॥६७॥ | यह मेरा आत्मा ही कर्मोंका नाश करनेवाला परम मोक्ष है और यह मेरा आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप अर्थात् रत्नत्रयरूप है || ६८ || यही मेरा आत्मा क्रोधादिक भावोंसे रहित क्षमाका टी० 11 38

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