Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 230
________________ म. प्र. ॥१५॥ स जोयात् ॥शा हितोपदेशी चरशान्तिदाता भवाब्धितस्तारणतीर्थरूपः । आचारचारित्रघरेण पूज्य, प्राचायचयः सततं स जीयात् ॥६॥ मिथ्यास्त्रमोहाद्वरबुद्धिहीनान कुमार्गगान्नुद्ध तवादित्रीरान् । सम्बका बोधेन युनक्ति सत्ये मार्गे स नान पाठक आशु जीयात् ।।७। मूलोत्तरान दिव्यगुणान् प्रधत्ते संसारभोगादिकतो विरक्तः । स्वात्मस्वरूपे दृढतां दधानः साधुदयालुगणवान स जीयात ।।८।। सूरीश्वरः शान्तिकरः प्रकृष्ट गुण गरिष्ठो मुनिमद्वारेष्ठः । श्रीशान्तिसिन्धुर्वरराज्यमान्या जीयाश्चिरं सोऽपि 'सुधर्म'पाता | सिद्धात्मनो विशुद्धांस्तान जिनाज्ञान जितमासगन् । कर्मकलकनिर्मक्तान केवलज्ञानभास्करान् ॥१०॥ परमेष्ठिपद प्राप्तान देवदेवःसुपूजितान् । श्रीनारङ्गाभिधाद्दुर्गात शिवं प्राप्तान जगन्नुतान् ॥११॥वर दत्तादि. सिद्ध शान् सार्द्ध कोटिवयान मुनीन । भत्त्या पुनः पुननीति नुनिः 'सुधर्मसागरः ॥१२॥ मङ्गलं कामदं ते नोदव्युः परम देनेवाले हैं और ज्ञानमय है; ऐसे सिद्ध परमेष्टी सदा जयशील हो ॥५॥ जो आचार्य हितोपदेशी है, श्रेष्ठ शांतिको देनेवाले हैं, संसारको पार करनेके लिये जो तीर्थरूप हैं, जो आचार और चारित्र धारण करनेवालोंके द्वारा पूज्य हैं; ऐसे आचार्य सदा जयशील हो ॥६॥ जो जीव मिध्यात्म और मोहनीय कर्म के उदयसे श्रेष्ठ बुद्धिसे रहित हो रहे हैं , जो कुमार्गगामी हो रहे हैं और उद्त हो रहे हैं। ऐसे || बड़े-बड़े वादियोंको भी जो अपने सम्यग्ज्ञानसे सत्यमय यथार्थ मार्गमें लगाते है; ऐसे उपाध्याय पामेटी शीघ्र ! || ही जयशील हो ॥७॥ जो साध दिव्य मल गुणोंको तथा उत्तर गुणों को धारण करते हैं, जो संमार और भोगादिकसे विरक्त हैं, जो अपने आत्मस्वरूपमें अत्यंत दृढ़ता धारण करते हैं; ऐसे दयालु और गुणवान माधु, | परमेष्ठी सदा जयशील हो ॥८॥जो आचार्य 'शान्तिसागर' शान्ति करनेवाले हैं, श्रेष्ठ है, गुणोमें श्रेष्ठ हैं, मुनियोंमें | | श्रेष्ठ हैं, जो राज्यमान्य हैं और मुझ 'सुधर्मसागर'की अथवा श्रेष्ठधर्म की रक्षा करनेवाले हैं, ऐसे अनार्य 'शांति सागर' चिरकाल तक सदा जयशील रहें ॥९॥ जो वरदत्तादि मुनि सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो गये है, अन्यंत विशुद्ध हैं, जितेन्द्रिय हैं, मत्सर आदि दोपोंसे रहित है, कर्म-कलंकोंसे रहित है, केवल ज्ञानरूपी मूर्यसे । | सुशोभित हैं, परमेष्ठी पढको प्राप्त हो चुके हैं, देवोंके भी देव जिनकी पूजा करते हैं, जो तारंगा नामके सिद्ध क्षेत्रसे मोक्षको प्राप्त हुए हैं और समस्त संसार जिनको नमस्कार करना है, ऐसे घरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ | लुनिराजोंको ये 'सुधर्मसागर' मुनि भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार करते हैं ।।१०-१२।। परम पवित्र २६

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