Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 221
________________ २०६ ॥ बीमारी नास्ति यन्त्र सुयोगिनाम् । एकत्वेन च तद्ध्यानमगोचारं वितर्क क्रम् ॥१७॥ यतोऽर्थानामने कत्वं तत्पृथक्त्वमिहोच्यते। अतज्ञानं वितः गावापन सत्र कागानां ध्याने यत्परिवर्तनम् । संक्रमो वास्ति बीचारो झयो विविधरूपकः ॥१६॥ अर्थादर्थान्तरप्रात्रिः ये स्यायत्पुनः पुनः। संक्रमः म हि विज्ञेया ध्येयार्थपरिवर्तनम् ॥२०|| व्यंजनाद् व्यंजने क्रांतिय जनसंक्रमोऽस्ति सः । योगायोगान्तरप्राप्तियोगकातिरुच्यते ॥२॥ अर्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रमः स्वातनः पुनः । संक्रमः स हि विज्ञेयः शुक्लथ्यानेऽत्र योगिनाम् ।।२२।। प्रारम्भ हि वचोयोगः संक्रम्य हि तनुर्भवेत् । परिवर्तनमेवं म्याद् योगाद् योगान्तरोऽव वै ॥२शा प्रारम्भे च गृहोतोऽर्थः स ततोऽर्थान्तरो भन्। एवं स्यादर्थसंक्रानिरर्थस्य परिवर्तनम ||२५|| एकमर्थ ममादाय गृह्णात्यर्थान्तरं पुनः । एवं हि विविधार्थ श्र नेषु क्रमने ध्यान कहते हैं, यह दृमग शुक्लध्यान है ॥१७॥ जहांपर ध्येयरूप पदार्थ अनेक होते हैं, उसको पृथक्व कहते हैं; तथा भावश्रुतज्ञान पूर्वक जो श्रुतज्ञान है, उमको वितर्क कहते हैं ॥१८॥ ध्यानमें जो अर्थव्यंजन योगोंका परिवर्तन होता है, संक्रमण होता है, उसको वीचार कहते हैं, वह वीवार अनेक रूपसे होता है ||१९|| ध्येय पदार्थ में जो शर-बार अथसे अर्थान्तरकी प्राप्ति होती है, उसको ध्येय अर्थको परिवर्तन करनेवाला अर्थसंक्रमण कहते हैं ॥२०॥ व्यञ्जन शब्दको कहते हैं, व्यञ्जनसे व्यञ्जनका जो संक्रमण हो जाता है, शब्दसे शब्दान्तर रूप हो जाता है, एक शब्दसे ध्यान करता हुआ उसी पदार्थके वाचक परे शब्दसे ध्यान करने लगता है, उसको व्यञ्जनसंक्रान्ति कहते हैं। इसी प्रकार जो योगसे योगांतर की प्राप्ति होती है, उसको योगसंक्राति कहते हैं ॥२१।। पहले पृथक्त्व वितर्क भ्यानमें योगियों के अर्थव्यञ्जन और योगों में बार-बार संक्रमण | होता रहता है । उसीको वीचार वा संक्रमण कहते हैं ॥२२॥ ध्यानमें जो पहले वचनयोग लगा हुआ था, वह बदल कर काययोग हो जाता है। इस प्रकार योगसे योगान्तर होना योगविचार कहलाता है ।२३।। इसी प्रकार ध्यान करते समय जो पदार्थ ध्येयरूप बनाया था, वह बदलकर दुग्ग पदार्थ ध्येयका हो जाता all है। इस प्रकार ध्यानमें जो ध्येयरूप पदार्थका बदल जाना है; उसको अर्थसंक्राति कहते हैं ॥२४॥ युनत्रान sil के विषयभूत जो अनेक पदार्थ हैं. उनमें से एकको ग्रहण करता है और फिर उसको छोड़कर दूसग ग्रहण कर लेता है, इस प्रकारका जो बदलना है; उसको अर्थवीचा' कहते हैं ॥२५।। शब्दसे शब्दान्तर, असे अथान्तर

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