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शनैर्विचिन्तयेद्योगी चित्ताहादस्य कारकम् 1 नाभिमण्डलमध्यस्थं पद्म' षोडशपत्रकम् ॥१६॥ प्रफुल्लं सर्वतो रम्यमक्षसन्तोषकारकम् । मकजुलं चिन्तयेद्योगी स्वरमालाविराजितम् ॥१५॥ तत्र पद्म महाप्राणं रेफरुद्ध कलान्वितम् । सानुस्वारं महामन्त्रं कणिकायां विचिंतयेत् ॥१८॥ तत्पद्मस्थितभासां तां मन्त्ररूपां स्वरोद्भवाम् पुनः पुनः स्वचित्तेऽस्मिन् ध्यानाभ्यासाय चिन्तयेत् ॥१६॥ निर्गच्छन्ती ततो रेफादग्निज्वाला शुभां स्मरेत् । तेन ज्वालाकलापेन वहेदज हदि स्थितम् ॥२०॥ अष्टपत्रं हि यत्तस्य तत्कर्माष्टकमुच्यते । अधोमुखं हि संस्थाप्य महामन्त्री प्रताननात् ॥२१॥ तद्दजमग्निज्वालाभिव्हेनिर्भयचेतसा । दग्धेऽब्जे हि ततः पश्चाश्चिन्तयेदग्निमण्डलम् ॥१२॥ | देहस्य च बहिर्मागे त्रिकोणं ज्वालयाशिवम् । बहिवीजात्समुद्र तं ज्वलन्तं दिव्यभासुरम् ॥२३।। स्वस्तिकाङ्क च निधूम
आहादित करनेवाले सोलह दलके कमलको धीरे धीरे चितवन करना चाहिये ॥१६॥ वह कमल खिला हुआ
हो, सब ओरसे मनोहर हो, इंद्रियोंको संतोष उत्पन्न करनेवाला हो, अत्यन्त सुन्दर हो और मालारूप लिखे X गये सोलह स्वरोंसे सोमायमान हा त मलकी फारकामें अनुस्वारसहित, कलासहित और || CII रेफसे रुका हुआ महाप्राण रूप " महामंत्रका चितवन करना चाहिये ॥१८॥ उस कमलमें
उत्पन्न हुई मंत्ररूप माला है, उसको अपने हृदयमें ध्यानका अभ्यास करनेके लिये बार बार चितवन करना | | चाहिये ॥१९॥ इसको श्वसना धारणा कहते हैं | तदनंतर उस योगीको उस रेफसे निकलती हुई शुभरूप
अग्निकी ज्वालाका चितवन करना चाहिये तथा उस अग्निकी ज्वालाके समूहसे हृदयमें विराजमान उस कमलको जलाना चाहिये ।२०॥ उस कमलके आठ पत्रोंको आठ कर्म समझना चाहिये। उनको अधोमुख करके स्थापन करना चाहिये और महामंत्रका मुख उपरकी ओर रखना चाहिये ॥२१॥ तदनंतर निर्भय चिन | होकर उस अग्निकी ज्वालासे उस कमलको जलाना चाहिये । जब वह कमल जल जाय, उसके बाद अग्निमंडलका चितवन करना चाहिये ॥२२॥ शरीरके बाहर उस अग्निकी ज्वालासे भरे हुए एक त्रिकोणका चितवन करना चाहिये, वह त्रिकोण बहिरूप वीजसे उत्पन्न हुई ज्वालासे जाज्वल्यमान होना चाहिये, दिव्य तेजसे प्रकाशमान होना चाहिये, उसपर स्वस्तिकका चिह होना चाहिये, वह अग्निकी ज्वाला धुमरहित होनी चाहिये और ऊर्चवायुसे प्रेरित होनी चाहिये अर्थात् ऊपर जानेवाली वायुके झकोरेसे उसकी माला
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