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||३२|| प्रशांतामपि धाराभिः कुर्वती वृष्टिमुल्त्रणाम् । सुवारूपां मनोशां वा चित्ताहादप्रदायिकाम् ||३३|| भस्म प्रचालयेताभिः मन्दं मन्दं शरीरजम् । चिंतयन् वां हि योगी स स्वस्थतां लभते पराम् ||३४|| अद्ध, चंद्रममाकारं शुभं वरुणमण्डलम् । कथितं वीरनाथेन मनोक्षजयकारकम् ||३|| षणमण्डलेनैव शुद्धरूपं च चिंतयेत् । सिंहासनसमारूढं दिव्यातिशयसंयुतम् ||३६|| प्रष्टदुष्टकर्मारणं दिव्यज्ञानेन भासुरम् । श्रर्हद्रूपसमाकारं निर्मलं शुद्धरूपकम् ॥१३७॥ सप्तधातु| विनिर्मुक्त जितेन्द्रसदृशं परम् आत्मानं शुद्धरूपं तत् स्वात्मनि स्वं च चिंतयेत् ||३८|| महाविभवसम्पन्न लोकालोकप्रकाशकम्। अनंतमहिमोपेतं स्वात्मानं चिंतयेत्सुधीः ||३६|| इत्थं हि पंचतत्त्वं यः स्मरेनिर्भयचेतसा । मन्त्रवित्स कहते हैं। आगे रूपवती धारणाको कहते हैं--प्रबसे पहले एक मेघमाला ( बादलों के समूह ) का चितवन करना चाहिये, जो धीरे धीरे बरस रही हो, बिजलीकी चमरुसे समस्त आकाशको प्रकाशमान करती हो, जिसमें इन्द्रधनुष पड़ रहा हो, जो अपनी धाराओंसे अत्यंत शांत और भारी दृष्टि कर रही हो, वह वृष्टि भी अमृतरूप हो, मनोज्ञ हो और मनको आहादन करनेवाली हो। उस मेचकी वर्षा से धीरे धीरे शरीरसे उत्पन्न हुई मम्मका प्रक्षालन करना चाहिये ( अर्थात् शरीर और कमल के जलने से जो भस्म हुई थी, वह उसकी वर्षा घुल रही है; ऐसा चितवन करना चाहिये ) । इनप्रकारकी मेघमालाका चितवन करने से उस योगी की आत्मा अत्यन्त स्वस्थ वा निराकुल हो जाती है ॥३२ – ३४ || भगवान् महावीर स्वामीने मन और इंद्रियों को जीतनेवाले इस शुभरूप वायुमंडलका आकार अर्धचन्द्र के समान बतलाया है ||३५|| योगीको इस वरुणमंडल के द्वारा अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपका चितवन करना चाहिये । उसे इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि मेरा यह आत्मा सिंहासन पर विराजमान है, दिव्य अतिशयोंसे सुशोभित है, इसने अपने सब पापकर्म नष्ट कर दिये हैं, यह दिव्य ज्ञानसे देदीप्यमान है, भगवान् अरहंतदेवके आकार के समान आकार को धारण करता है, निर्मल हैं, शुद्ध स्वरूप है, सप्त धातुओंसे रहित है, सर्वोत्कृष्ट है और भगवान् जिनेन्द्र देवके समान है; ऐसे अपने आत्मा शुद्ध स्वरूपको अपने ही आत्मामें अपने आप चितवन करना चाहिये ॥ ३६-३८ ।। यह मेरी आत्मा महाविभूतियोंसे शोभायमान है, लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाला है और अनन्त महिमासे सुशोभित है, बुद्धिमान योगीको ऐसे अपने शुद्ध आत्माका चिन्तन करना चाहिये | इसको तत्र
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