Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 196
________________ सु० प्र० माग्गेन ध्यायेक्ष विधिपूर्वकम् । सुभ क्या श्रद्धया शुद्धधा शुद्धभावन भावुकः ॥३५॥ नाभिमण्डलके स्थाप्य षोडशदलपद्मकम् । षोडशाक्षरसम्भूता विद्यां ध्यायेच तत्र वै ॥३६॥ परमेष्ठिस्वरूपांत महासिद्धिकरां शुभाम् । योगीश्वरैः सदा ध्येयामगम्यां ब्रह्मां पराम् ॥३७॥ निर्मला शिवदा शुद्धां कर्मपर्वतभेदिकाम् । सर्वसौख्यप्रदा सर्वदुःखसंतापहारि काम् ॥३८॥ एकाप्रमनसा योगी ध्यायेत्तां शुद्धभावतः । संसारचक्रनाशाय शिवसाधनहेतवे ॥६॥ घडवणात्ममहाविद्या परमात्मप्रवाचिका। शुद्धा शिवस्वरूपा वा ध्यातव्या च मुमुक्षुभिः ॥४०॥ तस्या ध्यानन शीघ्र हिचाईदरूपंह स्वात्मनः । अनायासेन शुद्ध तयोगिनां ननु जायते ॥४१॥ अणिमागरिमाद्याश्च दुर्लभास्ताः समद्धयः । जायन्ते योगिनां शीघ्र सुखदा हि विभूतयः ॥४॥ पञ्चवर्णमयीं विद्यां पञ्चानां परमेष्ठिनाम् । ध्यायेत्र स्थिरभावन सल्वासके प्रमाणसे इस मंत्रका ध्यान करना चाहिये ॥३५॥ इसीप्रकार नाभिमण्डल पर सोलह दलके कमलकी कल्पना करनी चाहिये और उसपर सोलह अक्षर महामंत्रका ध्यान करना चाहिये । ( सोलह अक्षरका मंत्रयह है-"अहंसिद्धाचार्योपाध्याय सर्वनाधुभ्यो नमः" अथवा "अरहंत सिद्ध आइरिय उवझाया माई") ॥३६॥ यह सोलह अक्षरोंसे उत्पन्न हुई महामंत्ररूप विद्या परमेष्ठिस्वरूप है, महासिद्धियों को करनेवाली है, शुम है, योगीश्वरोंके द्वारा सदा ध्यान करने योग्य है, अगम्य है, परब्रह्मसे प्रगट हुई है, सर्वोत्कृष्ट है, निर्मल है, मोक्ष देनेवाली है, शुद्ध है, कर्मरूप पर्वतको नाश करनेवाली है, समस्त सुखों को देनेवाली है और समस्त दुःख तथा संतापको दूर करनेवाली है। इसलिये योगियोंको जन्म-मरणरूप संसारचक्रको नाश करनेके लिये नथा मोक्षके माधन प्राप्त करनेके लिये एकाग्र मनसे तथा शुद्ध भावोंसे इस सोलह अक्षररूप महाविधात्मक महामंत्रका ध्यान करना चाहिये ॥३७-३९ । “अरहंत सिद्ध" इन छह वर्णोंसे उत्पन्न हुई मंत्ररूप महाविधा परमात्माकी वाचक है, शुद्ध है और मोक्षस्वरूप है, इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवालेको इसका भी ध्यान करना चाहिये ॥४०॥ इसके ध्यान करनेसे योगियोंके आत्माका स्वरूप बिना किसी परिश्रमके शीघ्र ही शुद्ध अग्हतस्वरूप हो जाता है ॥४१॥ इम ध्यानके प्रभावसे योगियोंको अणिमा-गरिमा आदि दुर्लम ऋद्धियां | और शीघ्र ही सुख देनेवाली विभूतियां प्राप्त हो जाती हैं ।।४२॥ "असि आ उसा" इन पांच अक्षरोंसे बनी हुई | मंत्ररूप महाविद्या पंच परमेष्ठीकी वाचक है। इसलिये योगियोंको संसारका जाल नाश करने के लिये स्थिर

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