Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 180
________________ मुनिवंशस्य विध्वंस मोहात् किंकिं करोति न ॥२६॥ विषयकामचेष्टार्थ सद्धमलोपयन्ति ये। स्वोस्यान्यथा प्रकुर्वन्ति मोहासु. प्र. चित्र जिनागमम् ॥२४ादूषयन्ति सदाचारं मोहाद्विपयलम्पटाः। वयन्ति मनाचारश्वध्रयान्वि हि तेऽधमामारमा अस्पृश्यः शाशूद्रकैः सार्द्धमभक्ष्यं भक्षयन्ति ये । कुर्वन्ति मलिनाचारं विषयः प्रेरिता ननु ॥२|विधवाना विवाई ये जल्पन्ति प्रेरयन्ति या । हीनाचार' महामोहालप्रकाशयन्ति भतले ॥३०॥ विवेमबिकला होता. कलानेन मदोद्धताः । अन्तर्दुष्टा बहि:शिष्टास्तेऽत्राधोगामिनो मताः ॥३२देवधर्मगुरुशास्त्र संघादीनां कुबुद्धितः। चैपचैत्यालयादीनां निन्दा कुर्वन्ति पापवः ॥३२॥ हिताहितं न जानन्ति बाजाः पापं चरन्ति च । श्वभ्रादिदुर्गतौ नूनं दीर्घकालं भजन्ति ते ॥३॥ अधोलोकस्य संस्थानं चिन्त्यते च विचार्यते । एकाममनसा तद्धि ध्यान संस्थानसंज्ञकम् ॥३४॥ तच्चिन्तनेन जीवोऽयं क्षेत्राद् दुःखदिभेति सः । का लोप किया है, उसने मुनियों के वंशको ही विध्वंस कर डाला है--ऐसा समझना चाहिये सो ठीक ही है । क्योंकि मोहसे यह जीव क्या क्या नहीं करता है अर्थात् सब कुछ करता है ॥२५-२६॥ जो जीव विषय और काम सेवन करनेके लिये श्रेष्ठ धर्मका लोप करते हैं. जो मोहनीय कर्मके तीत्र उदयसे अपनी युक्तिसे जिनागमको | अन्यथा करते हैं, जो विषय-लम्पटी जीव मोहकर्मके उदयसे सदाचारमें दोष लगाते हैं और अनाचारको बढ़ाते हैं, वे नीच नरकमें अवश्य पड़ते हैं ॥२७-२८|| जो जीव अस्पृश्य शूद्रोंका साथ या अभक्ष्यभक्षण करते ।। हैं, विषयोंसे प्रेरित होकर जो मलिनाचारको फैलाते हैं, जो विधवाविवाहका निरूपण करते हैं वा विधवा विवाह करनेकी प्रेरणा करते हैं, जो तीय मोहनीय कर्मके उदयसे इस संसारमें हीनाचारको फैलाते हैं, जो 5-7 अपनी अज्ञानताके कारण विवेकरहित है, सर्वथा हीन हैं, मदोन्मत्त है, अंतरंगमें महादुष्ट हैं, परंतु बाहरसे | शिष्ट दिखाई पड़ते हैं, ऐसे जीव मी नरकमें ही पड़ते हैं ॥२९--२१॥ जो लोग अपनी बुद्धिसे वा पाप कर्मके उदयसे देव, धर्म, गुरु, शास्त्र और संघ आदिकी निंदा करते हैं, चैत्य (प्रतिमा) और चैत्यालय आदिकी निंदा करते हैं, जो हित-अहितको नहीं जानते हैं अथवा जो मुर्ख पाप करते हैं; वे लोग चिरकालतक नरकादिक दुर्गतियों में परिभ्रमण करते हैं ॥३२-३३।। जो लोग एकाग्र मनसे अधोलोकके संस्थानका चिन्तवन करते हैं वा विचार करते हैं, उसको संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं ॥३४॥ इस संस्थानविचयका चितवन करनेसे यह जीव क्षेत्रोंके दुःखसे भयमीत होता है और श्रेष्ठधर्म धारण करता हुआ पापोंको छोड़कर SHAHR

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