Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 181
________________ ० प्र० १६६ ॥ करोति स्वात्मकल्याणं पापं त्यक्त्वा सुधर्मतः ॥३॥ मध्यलोके हि तिर्यञ्च मानवाः कर्मप्रेरिताः । जन्म मृत्यु प्रकुर्वन्दि नूनं ते पापकर्मणा ॥३६॥ तिर्यग्योनौ च दुर्गत्यां जीवा दुःखं भजन्ति च । अनादिकालतस्तत्र महामोहेन मोहिताः ||३७|| नित्यनिगोतके जीवा जन्म मृत्युं वदन्ति च । तेषां दुःस्वस्य पारं न त्रसत्वं तेऽपि नागताः ||३८|| येऽत्र त्रसाश्च तिर्यस्तेऽपि चात्यन्तदुःखिनः । व्याकुलाश्च पराधीना अशक्ता दुःखपूरिताः ||२३|| वधबंधनजं तीव्र शीतोष्णतुषादिकम् । दुःखं वहन्ति ते जीवाः तिर्यग्योनौ निरन्तरम् ॥ ४ ॥ जीवानां वधवधेन मायाचारेण कर्मणा । अतिविश्वासघातेना. न्यस्य द्रव्याप्रदानतः ॥४१॥ अन्यायेन दुराचारदुर्नीत्यादिकुकर्मणा । तिर्यग्योनौ च दुर्गत्यां जीवा दुःखं भजन्ति वा ॥ ४२ ॥ | मध्यक्षेत्रे च लोकेऽस्मिन् तिर्यग्दुःखस्य चिन्तनम् । अन्यचिन्तानिरोधेन चैकाप्रमनसा हि तत् ||४३|| संस्थान विचर्य ध्यानं भवदुःखनिवर्तकम् । निर्वेदकारण शुद्धघा ध्यातव्यं तद्धि धीमता ॥४४॥ नृगतौ हि महादुःखमाधिव्याधि अपने आत्माका कल्याण करता है ||३५|| मध्यलोकमें कर्मोंके प्रेरित हुए मनुष्य और विच रहते हैं, जो पापकर्मके उदयसे सदा जन्म-मरण प्राप्त किया करते हैं ॥३६॥ तीत्र मोहनीय कर्मसे मोहित हुए ये जीव अनादिकालसे तियेच योनिकी अनेक दुर्गतियोंमें अनेक प्रकारके दुःख सहन करते रहते हैं ||३७|| नित्य निगोदमें पड़े हुए जीव जन्म-मरणको धारण करते रहते हैं, उनके दुःखका कभी पार ही नहीं आता, क्योंकि उन्होंने आजतक पर्याय नहीं पाई है ॥ ३८ ॥ जो स विच हैं, वे भी बहुत दुःखी हैं; क्योंकि वे सदा व्याकुल रहते हैं, पराधीन रहते हैं, अशक्त होते हैं और महादुःखी होते हैं ||३९|| वे तिच जीव विर्यच योनि में -बन्धन के तीव्र दु:ख सहन करते रहते हैं; शीत, उष्ण, भूख और प्यास आदिकी महावेदनाको सहन करते रहते हैं । इस प्रकार वे महादुःख सहन किया करते हैं ॥ ४० ॥ ये जीव जीवोंका वध-बंधन करनेसे, मायाचारिताके काम करनेसे, अत्यन्त विश्वासघात करनेसे, परद्रव्यका हरण करनेसे, अन्याय, दुराचार और दुनति आदि नीच कार्योंके करने से तिर्येच योनिकी दुर्गतिमें अनेक प्रकारके दुःख मोगा करते हैं ||४१-४२ ॥ अन्य चितवनको रोककर एकाग्र मनसे इस मध्यलोकके क्षेत्रमें वा समस्त लोकमें रहनेवाले तियंचोंके दुखों का चितवन करना संस्थानविवय नामका धर्मध्यान है । यह ध्यान संसारके दुःखोंको नाश करनेवाला हैं और परम वैराग्यका कारण है । बुद्धिमान् पुरुषों को इसका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥४३ - ४४|| मनुष्य भा० टी ॥ १६६ ।

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