Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 182
________________ 8० प्र० ॥ १६७॥ समुद्भवम् । चिन्ताशोकपरीतापाप मानचित्चजं परम् ||२५|| कलइरोगदारिद्र्य पीडाभीत्यादिकं महत् । इष्टवियोगजं चैवानिष्टसंयोगजं परम् ||४३|| एवं हि नृगतौ दुःखं लभन्तेऽत्र निरंतरम् । दुर्लभस्तु नृपर्यायः स्वर्गमोक्षसाधकः ||४०|| वं प्राप्य ये न कुर्वन्ति दितं स्वस्य सुखेप्सया । ते वंचिता हि मोहेन संसाराब्धौ इन्ति च ॥ ४८ ॥ तस्मात्सुखे सया जीवाः कुर्वन्तु विविधं तपः । जिनलिंगं समाधृत्य पाप मुक्त्वा सुभावतः || ४६ ॥ एवं हि मध्यलोकस्य चिन्तन मननं तथा । चैकाग्रमनसा तद्धि ध्यानं संस्थानसंज्ञकम् ||१०|| ऊर्वलोकस्य संस्थाने उत्पादश्चामृताशिवाम् । तत्र हि स्वर्गजा देवा निवसन्ति महाधियः ॥५१॥ यद्यपि स्वल्पपुण्येन स्वर्गे देत्रगतावद्दी । जीवास्वत्र लभन्ते च सुखं पंचाक्षजं परम् ॥५२॥ दिव्यांगरूपसंपन्नाः स्वतंत्रा हि मनोहराः । निर्भयाः सुखसाम्राज्यं भुञ्जते ते दिवानिशम् ||२३|| मुकुटाहा र केयू रशोभिता गतियों भी महादुत होते हैं उत्पन्न होनेवाले महादुःख होते हैं; चिंता, शोक, संताप, अपमान आदिसे उत्पन्न होनेवाले दुःख; मनसे उत्पन्न होनेवाले दुःख; कलह, रोग, दरिद्रता, पीड़ा, भय आदिसे उत्पन्न होनेवाले महादुःख और इष्टवियोग वा अनिष्टसंयोग से उत्पन्न होनेवाले महादुःख इस मनुष्य गति में भोगने पड़ते हैं। इसकार मनुष्यगतिमें निरंतर दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं। यह मनुष्यपर्याय स्वर्ग- मोक्षका साधक है और इसीलिये अत्यन्त दुर्लभ है । इस मनुष्धपर्यापको पाकर सुख प्राप्त करने की इच्छासे जो अपने आत्माका कल्याण नहीं करते हैं. वे मोहनीय कर्मके उदयसे उगे जाते हैं और संसाररूपी मुद्रमें डूबते हैं। इसलिये आत्मा के सुख की इच्छा से भव्य जी को निर्मल परिणाम समस्त पापों को छोड़कर जिनलिंग धारण करना चाहिये और अनेक प्रकारके वपथग्ण करने चाहिये। इस प्रकार एकाग्र मनसे मध्यलोकका चिन्तन करना, मनन करना संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।। ४५--५०१ ऊर्ध्वलोकके क्षेत्र में देव उत्पन्न होते हैं और स्वर्ग में उत्पन्न हुए महाबुद्धिमान् देव वहां निवास करते हैं ॥ ५१ ॥ यद्यपि देवगतिमें स्वर्ग में थोड़ेसे पुण्यकर्म के उदयसे उत्पन्न होते हैं और हर पंचेन्द्रियों के श्रेष्ठ सुख प्राप्त करते हैं || ५२|| वे देव दिव्य शरीर और दिपाको धारण करते हैं, स्वतन्त्र होते हैं, मनोहर और निर्भय होते हैं और रात-दिन सुखमामग्रीका उपभोग करते रहते हैं ॥ ५३॥ वे देव मुकुट, हार, बाजूबन्द आदि आभरणोंसे सुशोभित रहते हैं, ऋद्धियों को धारण करते हैं और संगीत नृत्य तथा वादित्र आदि के द्वारा सदा दिव्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232