Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 178
________________ का म.प्र० ११६३॥ अधोवत्रासनाकारो मध्ये झल्लरिको मत। अन्ते हि मुरजाकारनिविभागैर्विभाति यः ॥६॥ अनादिनिधनो होकः स्वयंभूहि सनातनः । स केनापि तो नैव विलीनो न धृतो न वा ॥७॥ पंचद्रव्यविहीनं चाफाशमस्ति हि केवलम् । अनादिनिधनं निस्यमवगाहनशक्तिकृत । लोके सर्वत्र जीवोऽयं भ्राम्यति कर्मयोगतः । स जन्ममृत्युभिनित्यं दुःख प्राप्नोति दारुणम् ।।।। लोकः क्षेत्र च संस्थान सर्वे पर्यायवाचकाः। जन्ममृत्युजरादीनां क्षेत्रं लोकः प्रकीयते ॥२०॥ यत्र सर्वत्र जीवोऽयं करोति जननादिकम्। सोऽपि पंचपरावर्तंभ्रमतीद निरन्तरम् ॥११॥ लोकस्य चिन्तनं काग्रचिन्ता रोधपूर्वकम् । संस्थानविचयं ध्यानं तदस्ति क्षेत्रवाचकम् ॥१२॥ तत्र लोके अधोभागे नारकाः सन्ति शाश्वतम् । क्षेत्रज दारुणं तत्र दुःखमस्ति निरन्तरम् ।।१।। तेषां हि नारकाणां तु देहो लेश्या च विक्रिया। भावो निरन्तरं क्रूरतमोऽशुभश्न जायते ॥१४॥ ताउने मारणं बन्धं भर्त्सनं छेदन तथा। अङ्गानां भेदनं चैव प्राणानां परिपीडनम् ।।१५।। भर्जन वालुकायंत्रे दहन तप्ततैलक। पावन चाग्निकुण्डे वा वैतरण्यां प्रपातनम् ॥१क्षा एवं हि नारकास्तत्र कुर्वन्ति च परस्परम् । अति| वह सुशोमित होता है ॥६॥ यह लोकाकाश अनादिनिधन है, स्वयंभू है, सनातन है, न किसी ने किया है, न किसीने धारण किया है और न कोई इसे नष्ट करता है ॥७॥ जिसमें जीवादिक द्रव्य नहीं है, उसे र अलोकाकाश कहते हैं। वह अलोकाकाश भी अनादिअनिधन है और अवगाहन शक्तिको धारण करता है ॥८॥ कर्मोके निमित्तसे यह जीव समस्त लोकाकाशमें परिभ्रमण करता है, तथा जन्म-मृत्यु के द्वारा सदा दारुण दुःख भोगता रहता है ॥९॥ लोक, क्षेत्र वा संस्थान सब पयोयवाचक शब्द , जन्म-मरण आदिका जो क्षेत्र है उसीको लोक कहते हैं ॥१०॥ इसी लोकमें यह जीव पाँच परिवर्तनोंके द्वारा जन्म-मरण करता | हुआ निरंतर परिभ्रमण किया करता है ॥११॥ अन्य सब चिन्ताओंको रोककर एकाग्र मनसे इसी लोकका | चिन्तवन करना क्षेत्रको सूचित करनेवाला संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥१२॥ उस | लोकाकाशके अधोभागमें सदा नारकी रहा करते हैं और उस क्षेत्रसे उत्पन्न हुए दारुण दुःखोंको निरंतर सहन | किया करते हैं ।।१३।। उन नारकियोंका शरीर, लेश्या, विक्रिया और भाव निरंतर अत्यंत क्रूर और अत्यन्त अशुभ होते हैं ॥१४|| वहांपर नारकी जीवापरस्पर एक दूसरेको ताडन, मारण, बंधन, भर्सन, अंग तथा उपांगोंका छेदन-मेदन और प्राणोंका पीडन आदि करके अनेक प्रकारके दुःख दिया करते हैं, बालुके यंत्रमें भूनते हैं, गर्म

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