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सु० प्र०
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विंशतितमोऽधिकारः ।
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लोकालोकं विजानाति पश्यथिनपत्सदा । न्यये हाममानुस श्रीमल्लिवीर्थ नायकः ॥१॥ अनादिनिधनं नित्यमनन्तं व्यापकं विभु आकाशं सर्वतो ज्येष्ठमनन्तानन्वशक्तिमत् ॥२॥ अकृत्रिमं स्वयम्भूतमवगाहनशक्तिभृत् । लोकालोकप्रभेदेन द्विधा प्रोकं जिनेशिना ||३|| यत्र जीवादयश्चार्थाः सन्ति स लोक उच्यते । केवलं व्यवहारत्वादाकाशं केवलं च तत् ॥४॥ षद्रव्यखचितो लोकस्त्रिभिवर्तिश्च वेष्ठितः । स्वयं प्रतिष्ठितस्तेन भाति वाश्चर्यकारकः ||५||
जो लोक अलोकको जानते हैं और एक साथ देखते हैं और जो ज्ञानके सूर्य हैं, ऐसे तीर्थकर भगवान् श्रीमल्लिनाथको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १॥ यह आकाश अनादि है, अनिधन है, नित्य है, अनंत है, व्यापक है, वि है, सबसे बड़ा है और अनंत शक्तिको धारण करनेवाला है || २ || वह आकाश अकृत्रिम है, स्वयंभू है और अवगाहन शक्तिको धारण करनेवाला है। भगवान जिनेन्द्रदेवने उसी आकाशके लोक अलोकके भेदसे दो मेद बतलाये हैं ||३|| जिस आकाशमें जीवादिक पदार्थ विद्यमान हैं, उसे व्यवहार नयसे लोकाकाश कहते हैं; वास्तव में वह आकाश ही है ||४ | उस लोकाकाशमें छहों द्रव्य भरे हुए हैं; घन वात, अम्बु वात और बात; इन तीन प्रकारकी वायुओंसे घिरा हुआ है। वह स्वयं प्रतिष्ठित है किसीका बनाया हुआ नहीं है । और इसीलिये आश्रर्य करनेवाला वह बहुत ही शोभायमान होता है ||५|| उस लोकाकाश के तीन विभाग हैं - एक अधोलोक, दूसरा मध्यलोक और तीसरा ऊर्ध्वलोक । अधोलोक मृदा ( वेंतके आसन ) के आकारका है, मध्यलोक थाली के आकारका है और ऊर्ध्वलोक पखावजके आकारका है; इसप्रकार तीन मार्गस