Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 143
________________ सु० प्र० ॥ १२६ ॥ सुशक्यं वा कुर्वन्तस्ते यतीश्वराः ||३६|| जगत्पूज्या जगद्वन्या धन्यास्ते नग्नरूपकाः । होतसंहननस्त्राच स्थानं तेषां सुरक्षितम् ||३७|| आसनं स्वानुकूलं हि प्रामादौ च भवत्यम् । शुद्धभूमौ शिलापट्टे दारुपट्टे च चाट्टिके | तृणान्वये हि काष्ठे वा आसनानि प्रकल्पयेत् । समाधौ प्रासुके शुद्ध े दरो तृणमयेऽथवा ॥ ३६ ॥ श्रसनं शयनं तत्र कल्पयेत्साधुसत्तमः । पल्यङ्कम पल्यङ्कपद्मवीरसुखासनम् ॥ ४० ॥ कायोत्सर्ग तथा वद्धपद्मासनं तथा । एवंविधान्यनेकानि ह्यासनानि जिनामे ||४|| येन येनासनेनैव स्थिरचित्तं प्रजायत । तत्तदेवासनं श्रेष्ठं विधेयं योगिभिः सदा ||४२|| सर्वानेषु पर्यकं कायोत्सर्ग विशेषतः । प्रशस्तमासनं ज्ञेयं चेदयुगीन योगिनाम् ॥४३॥ श्रासनस्य सदाभ्यासं कुर्यात्साधुर्निरन्तरम् । समाधौ चोपसर्गे च येन चित्तं स्थिरी भवेत् ||४४ ॥ यदासनस्य नी स्थैर्ये किं ध्यानं तस्य वै भवेत्। स्थैर्यासनेन स योगी प्रयाति स्थिरचित्तताम् ||४५|| पुनः पुनः सदाभ्यासमासनस्य करोति यः । सर्वक्षेत्रे प्रसंगे सः धैयं धरति तत्त्वतः ॥ ४६ ॥ स्थानासनविधानानि सर्वाणि संचरेत्सुधीः । ध्यानसिद्ध निबंधानि शुद्धिश्च होने योग्य अशक्य कार्य को भी सरलता के साथ धारण कर रहे हैं ।। ३५ -- ३६ ॥ इसीलिये वे मुनि जगत्पूज्य जगद्वन्द्य हैं, नग्न अवस्थाको धारण करनेवाले हैं और इसीलिये धन्य हैं। परंतु हीन संहनन होनेके कारण उनका स्थान सुरक्षित ही होना चाहिये ||३७|| ऐसे मुनियोंका आसन किसी भी गांव आदि में उनकी अनुकूलता के अनुसार होना चाहिये । शुद्ध भूमिमें, शिलापर, लकड़ी के तख़्तेपर, तृण वा काठसे बने हुए आसनपर आसनकी कल्पना करनी चाहिये। समाधिमें शुद्ध तृों वा तृणोंके बने आसनोंमें उत्तम माधुओं को आसन लगाना चाहिये, अथवा शयन करना चाहिये । पर्यकासन, अर्धपर्यकामन, पद्मासन, वीरासन, सुखानन कायोत्सर्ग, वज्रासन, बद्धासन, पद्मासन आदि अनेक प्रकारके आसन जिनागममें बतलाये गये हैं ।। ३८-४११ जिस जिस आसन से अपने चित्त की स्थिरता हो वही वही श्रेष्ठ आसन योगियों को धारण करना चाहिये ॥ ४२ ॥ इम युग सुनियोंके लिये समस्त आसनोंमें विशेषकर पर्यासन अथवा कायोत्सर्ग आसन श्रेष्ठ आसन माना जाता है ||४३|| साधुओं को लदा आसनोंका अभ्यास करते रहना चाहिये। जिससे कि समाधि और उपसर्गके समय भी चित्त स्थिर बना रहे ||४४ || जिस मुनिका आसन ही स्थिर नहीं हैं, उसे भला ध्यान कैसे हो सकता है ? क्योंकि योगीका चित्त स्थिर आसन से ही स्थिरताको प्राप्त हो सकता है || ४५|| जो योगी आसनोंका बार बार अभ्यास करता है, वह समस्त क्षेत्रों में और समस्त प्रसंगों में वास्तविक धैर्य धारण कर सकता है ॥४६॥ अनेक SAAWAN भा० ॥ १२८

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