Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 158
________________ सु० प्र० १४३ ॥ ||६४४|| यदुव्यवहारचारित्रक्रिया का प्रभासकम् | श्री मज्जिनागमश्वास्ति तत्सत्यं च प्रमाणकम् ॥ ४५ ॥ उत्तादृशं हि नान्यनान्यथा जातुचित् । जिनागमस्य या चाज्ञा जिनाज्ञा मैत्र कथ्यते ॥ ४६ ॥ मत्वेति श्रद्धया भाया जिनाशाप्रति पालनम् । अन्यचिन्तां निदध्यैकामेनाज्ञाचिन्तनं परम् ||४७|| मननं स्पर्शनं चैत्र रोवनं न विचारणम् । प्रसारणं | स्वचित्तेऽस्मिन् तदाशाविचयं विदुः ||४८ || श्राज्ञाविचयसद्धपानात्तीर्यते स भवाः । लभ्यते शिवसौख्यं हि कर्मच चभिद्यते ||४६|| जायते दर्शनं शुद्ध भवबन्धनभेदकम् । देवेन्द्राणां परा सम्पज्जायते सुतरां हि सः ||५० || अशाविचयसद्धयःनं ध्यातं तीर्थंकरैरपि । गणधरैश्च वद्धय तं ध्यातं च योगिभिः सदा ||११|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ध्यावत्र्यं कर्महानये । आशा विचयसद्धानं भव्येन शुद्धचेतसा ॥५२शा जगति जिनवराशां चिन्तनं यः करोति । परम विमलभावात् रोचत भक्तिपूर्वक चिन्तनकर मनन करना आज्ञा विचय धर्मध्यान कहलाता हैं ||२३ - ४४ ॥ व्यवहार, चारित्र और क्रियाकांडको प्रकाशित करनेवाला जो भगवान जिनेन्द्रदेवका आगम है, वही सत्य हैं और प्रमाण है । इस जिनेन्द्रदेव के आगमके समान अन्य कोई आगम नहीं है और न अन्यप्रकारसे कभी आगम हो सकता है, आगमकी जो आज्ञा है, वही भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा है, ऐसा मानकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका पालन करना, अन्य समस्त चितवनको रोककर एकाग्र मनसे चितवन करना, मनन करना, विचार करना, उसमें प्रेम करना, उसको फैलाना ओर चित्तमें धारण करना आदि सत्र आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।४५-४८|| इस आज्ञाविचय नामके श्रेष्ठ ध्यानसे संसाररूपी समुद्र पार कर लिया जाता है, मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है, कर्मों के सब समूह नष्ट हो जाते हैं, संसारके बधधनको नाश करनेवाला सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और देवों के इंद्रों की सर्वोत्कृष्ट संपत्ति अपने आप आ जाती है ||४९-५०॥ इस आज्ञाविचय धर्मध्यानको भगवान तीर्थङ्कर परमदेव भी धारण करते हैं, गणधर भी धारण करते हैं और योगीलोग भी सदा धारण करते हैं ॥ ५१ ॥ इसलिये भव्य जीवोंको अपने शुद्ध हृदयसे सब तरह के प्रयत्नकर अपने कर्म को नाश करनेके लिये इस आज्ञाविवय नाम के धर्मध्यानको अवश्य धारण करना चाहिये ॥५२॥ इम संसारमें भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा को जो चितवन करता है, परम भा० ॥ १४३

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