Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 149
________________ स.प्र. PRESS त्रियोगतः ॥१५॥ वाक्येन यषिन्तयति निष्पकप सुभावतः । ध्यान सरकथ्यसे देवरईसियानपारगैः ॥१५॥ सर्वार्थभ्यः समाकृष्यार्थ चिन्तां च चपला पराम् । ध्येयवस्तुनि चैकापनियविनिलज्ञणाम् ॥१७|भावतं समाशम्स्य बहिःसन्यो निजात्मनि । स्वास्मनश्चिन्तनं मुख्य ध्यानं तदपि कथ्यते ||१८|| यश्चिन्तयति मुख्येन चैकमर्थ निजेच्छया। अशुभं वा शुभं शानातदेव हि पुनः पुनः ॥१६॥ तद्विचारात्मक ध्यानं योगिभिः कथितं परम् । शुभाशुभात्मक तह ध्येयभेदाद् द्विधा मतम् ||२०|| अन्तस्तत्वं समालम्च्य चान्तरानन्ददायकम् । अन्यत्सर्व निराकृत्य चैकाप्रेन तदेव हि ॥२॥ चिन्तन मननं सम्यक तन्मयत्वेन भावतः | आध्यात्मिकं भवेद्धपान स्वात्मानन्दप्रदायकम् ॥२२॥ जिनविम्ब स्वचिचे. ऽस्मिन् संस्थाप्य च स्ववेदनात् । एकागवान नचाइगुणमितिमाशा शौः शश्च तद्रपं स्वात्मन्येव सुचिन्त येत् । बहि-शून्यं च कृत्वा हि स्वात्मना तन्मयं भवेत् ॥२४॥ एवं हि निश्शनत्वं च कृत्वा तत्र सुचेतसा । ध्यानं तत्स्वा. | अपने ही आत्मामें अपने ही आत्माको दृढ़ताके साथ चिंतवन किया जाता है, उसको भी ध्यानके पारगामी भगवान || अरईतदेव ध्यान कहते हैं ॥१५-१६।। म चंचल चिंताको समस्त पदार्थोंसे हटाकर ध्येय वस्तुमें एकाग्रता. पूर्वक लीन कर देना भी ध्यान कहलाता है । ॥१७|| अथवा भाव ध्रुतका अबलम्बन लेकर और वाद्य पदार्थोंमें शुन्यसा होकर अपने आन्मामें अपने आत्माका चितवन करना भी मुख्य ध्यान कहलाता है ||१८| जो अपनी इच्छासे अपने ज्ञानपूर्वक शुभ वा अशुभरूप किसी एक पदार्थको मुख्यतासे बार बार चितवन करता है, Sil उसका वह चितवन मी ध्यान कहलाता है। शम पदार्थकाचितवन करना शुम ध्यान है और असम पदार्थका चितवन अशुभ ध्यान है। इसप्रकार ध्येयके भेदसे मी ध्यानके दो मेद होते हैं, ऐसा योगियोंने कहा है ॥१९-२०॥ | अथवा अन्तरात्माका अवलम्बन लेकर तथा अन्य सयका त्यागकर एकाग्रतासे उसका चितवन करना, अच्छीIR तरह मनन करना, तन्मय होकर उसका ध्यान करना, आध्यात्मिक ध्यान कहलाता है, यह ध्यान मी मावपूर्वक l किया जाता है, तथा अपने मन और आत्मा दोनोंको आनन्द देनेवाला है ॥२१-२२॥ अथवा अपने | हृदयमें अपने ज्ञानके द्वारा जिनविम्बको विराजमानकर एकाग्र मनसे भगवान् अरहंतदेवके गुणोंका चितवन | करना भी ध्यान है । अथवा धीरे धीरे अपने आत्मा भगवान् अरहंतदेवके रूपका चितवन करना, बाहरके | समस्त विकल्पोंको छोड़कर अपने आत्माके द्वारा अपने बात्मामें तन्मय हो जाना, अपने मनके द्वारा अपने KARNAKSHRAM

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