Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 142
________________ पु० प्र० ॥१२॥ मनः । येषां तु योगिनां तेषां स्थानस्य का विचारणा ॥२६॥ तद्वैयं तम्मदीयं तस्थानं हि तदासनम् । पुरातन मुनीनां च वोपसर्गसहिष्णुता रजा स्वप्नेऽपि तादृशं कतुं नो क्षमाः कलकालजाः । मुनयो हीनवीयत्वाद्धीनसंहननात्तथा ॥२८॥ संवत्सरकपर्यन्तं कायोत्सर्ग स्थिरासनम् । महामहोपवासेन साम्प्रतं कर्तुमक्षमाः ॥॥ उपसर्ग महापोरं भयानकपबहाम् । स एव सहन साम्प्रतं मुनयो घराः ॥३॥ ऐदंयुगीनसाधूनां साम्प्रतं न समर्द्धयः । मनःपर्ययविज्ञानमत एव भवन्वि न ॥३१॥ चतो नैव महाविद्यास्तयां सिद्धधन्ति साम्प्रतम् । स्वर्गद्व जगद्वन्धं धर्मध्यानं भवेदिह ।।३२|| अधुना हीनकालेऽस्मिन् पुरातनसुकालबत् । मूलान् गुणांश्च ये सम्यक चाप्टाविंशतिकान शुभान् ॥३३॥ धारयन्ति सुभावेन धन्यास्ते पृथिवीतले । तेषां हि साहसं धन्यं धन्यस्तेषां पराक्रमः॥३४॥ हीनसंहननत्वेऽपि तपः कुर्वन्ति दुर्द्धरम् । दीक्षामिमा सुकठिनां दुर्द्धरा जातरूपिकाम् ॥३५॥ धारयन्तो यनीशास्ते पुरातन इवाघुना । अशक्यं हि जैनशास्त्रोंमें कोई स्थान नियत नहीं है । ऐसे मुनि चाहे जहां ध्यान कर सकते हैं ।।२४-२५।। जिनके निश्चल मनको | भेदन करने के लिये इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता, ऐसे योगियों के लिये भला स्थानका क्या विचार करना चाहिये ॥२६॥ पहले मुनियोंका जो धैर्य है, जो महावीर्य है, जो स्थान है,जो आसन है और जो उपसर्ग महन करने की शक्ति | है; इस कलिकाल के मुनियों को स्वप्न में भी कमी नहीं हो सकती; क्योंकि कलिकालके मुनि हीन संहननवाले 15 और अल्प शक्तिको धारण करनेवाले होते हैं ।।२७-२८॥ अबके मुनि एक वर्ष पर्यन्त महामहोपवास धारणकर १ स्थिर आसनसे कायोत्सर्ग धारण करने के लिये सर्वथा असमर्थ हैं ॥२९|| इसीलिये इस कालके श्रेष्ठ मुनि मी | महाघोर उपसर्गोको तथा भयानक परिपहोंको कमी सहन नहीं कर सकते हैं ॥३०॥ इस युगके साधुओंको इस समय न तो बड़ी बड़ी ऋद्धियां होती हैं, न मनापर्ययज्ञान होता है और न उनको इस समय महाविद्यायें सिद्ध होती हैं । इस कालमें स्वर्ग देनेवाला और जगन्ध ऐसा धर्मध्यान ही हो सकता है ॥३१-३२॥ इस हीन काल में भी पहले कालके समान जो शुभ अहाईस मूलगुणोंको श्रेष्ठ परिणामोंसे धारण करते हैं, | वे ही मुनि इस पृथ्वीतल पर धन्य है। ऐसे मुनियोंका साहस भी धन्य है और उनका पराक्रम मी धन्य है ॥३३-३४॥ क्योंकि वे हीन संहनन होनेपर भी दुर्धर तपश्चरण करते हैं और वे मुनि पहले चौथे कालके नियों के समान इस समयमें भी अत्यन्त कठिन नग्नरूप इस जैनेश्वरी दीक्षाको धारण करते हैं। वे सनि न

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