Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 110
________________ ननु ॥३८॥ मनावश्येऽतविजयः सुतरां जायते ननु । तस्मान्मनक्षवश्याथै तपो हि मुख्यकारणम् ॥३॥ इण्यानिरोधतः सम्यक मोक्षवश्यता भवेत् । अद्धाभक्तिभरेणापि तो बाह्य समुच्यताम् ॥४॥ प्रायश्चिताचादिभेदेन तपश्चाभ्यन्तरं मतम् । कर्मविच्छेदकं तत्तु स्वात्मधर्मप्रकाशकम् नशा प्राप्तदोषसुशुद्धयर्थं सुनते स्थापनाय वा । प्रायश्चिचं विदभ्याच दोषोपशमनाय वै ॥४|| मुनीनां च मनःशुद्धिः प्रायश्चित्तेन जायते । प्रायश्चित्ततपस्तस्मादन्तरंगतपो मतम् ॥४३॥ मावशुद्धिश्च चारित्रशुद्धिरास्मगुणस्य च । प्रायश्चित्तं ततो मुख्यं तपःशुद्धिविधायकम् ॥४४॥ देवशास्त्रगुरूणां च रत्नत्रयसुधारणम् । धर्मवत्सजनानां वा धर्मरत्नत्रयस्य च ॥४श्रीजिनचैत्यकोल्यालयानां श्रीशासनस्य च । विनयो भावभक्त्या हि क्रियते मुनिमत्तमैः ॥४६॥ तेषां हि गुणसिद्धयर्थं प्रभावनाप्तये तथा । विनयाख्यौं तपः प्रोक्त तद्धि श्रीमज्जिनेश्वरी ॥४ा पूज्यानां विनयेनात्र | गुणास्तेषां भवन्ति च । विनयात्स्वमुमोको गुणप्राप्तिश्च जायते ॥४८॥ घालवृद्धमुनीनां च रोगादिपीडितात्मनाम् । ASHARANASRHANGYAN | इन्द्रियोंका विजय अपने आप हो जाता है । इसलिये कहना चाहिये कि मन और इंद्रियों को वश करनेके लिये * | तप ही मुख्य कारण है ॥३९॥ इच्छाका निरोध करनेसे मन और इंद्रियां अच्छी तरह वश हो जाती है, है। इसलिये बाह्य तपश्चरण श्रद्धा और भक्तिपूर्वक धारण करना चाहिये ॥४०॥ आभ्यन्तर तपश्चरणके प्रायश्चिन | 5 है आदि अनेक भेद हैं, यह आभ्यंतर तपश्चरण कर्मों को नाश करनेवाला है और आत्माके धर्मको प्रकाशित करने || | वाला है ॥४१॥ लगे हुये दोषोंको शुद्ध करने के लिये अथवा व्रतोंमें दृढ़ता धारण करनेके लिये और दोषीको F| शांत करनेके लिये प्रायश्चित्त तपश्चरण धारण करना चाहिये ।।४२॥ इस प्रापश्चित्तसे मुनियों के मनकी शुद्धि | होती है. इसीलिये यह प्रायश्चित्त अन्तरंग तप कहलाता है ॥४३॥ यह प्रायश्चित्त भावोंकी शुद्धि करता है, चारित्रको शुद्ध करता है और आत्माके गुणों को शुद्ध करता है; इसीलिये यह प्रायश्चित्त मुख्य नप माना | जाता है ॥४४|| श्रेष्ठ मुनियों को भाव और भक्तिपूर्वक देव शाम्ब गुरुओंका, रत्नत्रय धारण करनेवालोंका, धार्मिक सजनोंका, धर्मका, रत्नत्रयका, चैत्य चैत्यालयोंका और जिनशासनका विनय सदा करते रहना चाहिये ।।४५-४६॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने देवादिकोंके गुणों की सिद्धि के लिये और प्रभावना करने के लिये विनय नामका तपश्चरण बतलाया है ।।४७॥ पूज्य पुरुषों का विनय करनेसे उनके गुण बढ़ते हैं, विनयसे |

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