________________
-7
-
मु.प्र.
॥१२३॥
रागभालत पुटनिकमा समान रक्षणम्॥४ा कामादिसेवनं गृद्धया प्रीत्यान्यनीनिगृहनम् । इत्यादिरागचेष्टानि जायन्ते क्रूरकर्मणा ॥४क्षा परवस्तु निजं मत्वा मोहव्याकुलचेतसा चिन्तनं हि तदर्थ तद्रौद्रध्यानं भवेदिहापंचाज्ञविषयाणां हि सेवनं रौद्रकर्मणा । चिन्तनं च तदर्थ हि पाप भीम कुकर्म वा ॥४८॥ विषयानन्दनामेदं रौद्रध्यानं भवेदिह । | एवं रौद्र चतुर्भेदं पंचमान्तं हि तद्भवेत् ॥४|| रौद्रध्यानेन जीवोयं नरकादिकदुर्गतौ । चिरं च सइते दुःख ताडनादि वधादिकम् ५०॥ रौद्रध्यानं सदा त्याज्यं भव्येन सुखलिप्सया । रौद्र नियं त्रिलोकेषु दुर्गतेर्दायकं परम् ||१|| त्यजतु अपि सुधीमन्नातरौद्र च नियं नरकसदनमार्ग दुःखद क्रूरकर्म । परमसुखनिधान सर्वकल्याणवीजं धरतु इह सुधर्मध्यानमानन्दकन्दम् ।।५२।। - [इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे प्रातरौद्रध्यानप्ररूपणो नाम धसुर्दशोधिकारः । की रक्षा करना, गृद्धतापूर्वक कामसेवन करना, रागपूर्वक अन्य स्त्रियोंकी लालसा करना, इसप्रकार रागभावके उदयसे रागकी चेष्टाएं करना वा ऋर कोंक द्वारा रागरूप चेष्टाएं करना, अथवा मोहसे व्याकुल चित्त होकर परवस्तुओंको अपनी मानना और बार बार उनका चितवन करना विषयसंरक्षणानंद नामका चौथा
रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्र कर्मोंका तथा पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करना, तथा उसके लिये भयानक | | पापों वा कुकर्मोका चितवन करना विषयानन्द नामका चौथा गैद्रध्यान कहलाता है। इसप्रकार रौद्रध्यानके R/चार मेद हैं और यह रौद्रध्यान पांचवे गुणस्थान तक होता है ॥४४-४९|| रौद्रध्यानके कारण यह जीव | 5. नरकादिक दुर्गतिमें जाता है और वहांपर ताडन वध आदि अनेक दुःख चिरकालतक सहन करता रहता K| है ॥५०॥ इसलिये भव्य जीवोंको सुख चाहनेकी इच्छासे इस रौंद्रध्यानका सदाके लिये त्याग कर देना
चाहिये । क्योंकि यह रौद्रध्यान तीनों लोकोंमें निंद्य है और बुरीसे बुरी दुर्गतियोंको देनेवाला है ।।५१॥ हे बुद्धिमन् भव्य जीवो ! यह रौद्रध्यान अत्यन्त निंद्य है, नरकरूपी घरका मार्ग है, दुःख देनेवाला है और क्रूर कर्म है; इसलिये इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये और परम सुखका निधान, समस्त काल्याणोंका कारण और आनन्दवरूप-ऐसे सुधर्मध्यानको सदा धारण करना चाहिये ॥५२॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारमें प्रार्थध्यान और रौद्रध्यानको
· वर्णन करनेवाला यह चौदहवां अधिकार समाप्त हुआ।