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मा०
सु०प्र० 1१०२॥
ह्यादौ पश्चादन्यं च इंति वा ॥२॥ प्रचण्डकोषवह्निहि ज्ञमया शाम्यति खयम् । बोधधाराप्रपातेन सणाच्छान्ति प्रयाति च ॥२८॥ लोकद्वयहितध्वंसी क्रोधः शीघ्र प्रशाम्यते । योगिभिः शान्तचेतोभिः क्षमाभावनया स्वयम् ।।२।। प्रशान्ते न्यायमार्गेस्मिन शुद्ध रत्नत्रयात्मनि । प्राप्तोई पुण्ययोगेन भवारण्ये भ्रम भ्रमन् ॥३०॥ यावत्क्रोधो दुराचारी रत्नत्रयमनर्यकम् । इत्वात्मानं भवागते न पातयति भीमके ॥३१।। तावत्क्षमामृतेनैव परां शान्ति लभामहे । विवेकबोधवाौँ किं करिष्यति क्रुधानलः ॥३२॥ अनादिकालतोऽनेन क्रोधेन धर्मवैरिणा । पातयिरवा भवागर्ने पीडितोई पुनः पुनः ॥३३|| अधुना पुण्यवोगेन लब्धो धर्मो जिनोदितः। तत्रापीयं सुदीक्षा वा लब्धा दैगम्बरो मया ॥३४॥ तमामृतं शुभ पीतं क्रोधो मे किं करिष्यति । इति भावनया धीरः क्रोधं मुञ्चेत् सुबोधतः ॥३॥ अनन्तानन्तसंसारे
भ्राम्यमाणो जनोऽनिशम् । को वा कस्य न बंधुश्च न भूनोऽनेकशः सदा ॥३६|| साम्यबुद्धिगतानां च सुरशा तत्त्व. | स्वयं शांत हो जाती है, तथा सम्यग्ज्ञानकी धाराके पड़नेसे भी क्षणभरमें शांत हो जाती है ॥२८|| शांत | | हृदयको धारण करनेवाले योगी लोग अपने थमारूप परिणामोंसे दोनों लोकोंके हितको नाश करनेवाले | इस क्रोधको शीघ्र ही शांत कर देते हैं ।।२९।। यह रत्नत्रयरूप न्यायमार्ग अत्यन्त शुद्ध है और 2 | प्रशांत है, संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करता हुआ मैं किसी पुण्य कर्मके उदयसे ही प्राप्त हुआ हूँ ॥३०॥ इसलिये यह दुराचारी क्रोध जबतक बहुमूल्य रत्नत्रयको नाशकर आत्माको संसाररूपी भयंकर गढमें नहीं पटक देता है, तबतक मुझे क्षमारूपी अमृतके द्वास श्रेष्ठ शांति प्राप्त कर लेनी चाहिये। क्योंकि यह क्रोध- | रूपी अग्नि विवेक और ज्ञानरूपी समुद्र में क्या कर सकती है ? ॥३१-३२॥ धर्मको नाश करनेवाला यह क्रोध | अनादिकालसे मुझे संसाररूपी पड़े गठेमें डाल रखा है और बार बार मुझे दुःख दे रहा है ॥३३॥ अब पुण्यकर्म के उदयसे मैंने भगवान जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ धर्म धारण किया है और फिर दिगम्बरी दीक्षा धारणकी है। अब मैंने क्षमारूप अमृतका पान किया है, अब क्रोध मेरा क्या कर सकता है। इस प्रकारकी भावना धारण कर धीर वीर पुरुषको अपने सम्यग्ज्ञानके द्वारा क्रोधका त्याग कर देना चाहिये ॥३४-३५॥ इस अनन्तानन्त संसारमें सदासे परिभ्रमण करता हुआ यह जीव अनेक बार कौन किसका भाई नहीं हुआ है ? ॥३६॥ नो तत्वोंको जाननेवाले और समता वृद्धिको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव हैं, उनके लिये इस संसारमें समस्त