Book Title: Sramana 2015 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 15
________________ 8 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 श्रामण्य में अधिक गुण वाले मुनि क्रियाओं में हीनगुण वाले मुनि के साथ प्रवृत्ति करते हैं तो वह परस्पर में एक जैसा होकर प्रभ्रष्ट चारित्र वाले हो जाते हैं । ५२ भगवान् की आज्ञा में चलने वाले श्रमण को देखकर जो द्वेषभाव से उनका अपवाद करता है और विनय आदि क्रियाओं में नहीं लगता है तो वह निश्चय से चारित्र रहित है । ३ इस प्रकार श्रमण वेषधारी जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से शुद्धोपयोगी श्रमण से विपरीत क्रिया करता है वह श्रमण न होकर श्रमणाभासी है। उपर्युक्त प्रकार से शुद्धोपयोगी श्रमण एवं शुद्धोपयोग से रहित श्रमणाभासी के स्वरूप को जानकर हमें विवेकपूर्वक कार्य करते हुये अपना लक्ष्य निश्चित करना चाहिये । सन्दर्भ : १. रत्नत्रय पारिभाषिक शब्दकोष, पृष्ठ ५०५-५०६ २. यशस्तिलकचम्पू, पृष्ठ ४११-४१२ (द्रष्टव्य, रत्नत्रय पारिभाषिक शब्दकोष, पृष्ठ ५०५-५०६) ३. लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत को छोड़कर शेष छह पाहुडों की अन्तिम गाथा की प्रशस्ति में उल्लिखित । ४. प्रवचनसार, गाथा २१४ ५. वही, गाथा २१९ ६. प्रवचनसार, कुन्दकुन्दभारती, गाथा ३ / ५-६ का हिन्दी अनुवाद ७. वही, गाथा ३ / ५-६ ८. प्रवचनसार, गाथा २१५ ९. वही, गाथा २१७-२१८ १०. वही, गाथा १४ ११. वही, गाथा ३१० १२ . वही, गाथा २८४ १३. वहीं, गाथा ८३ १४. वही, गाथा ८६ १५. वही, गाथा ८७ १६. वही, गाथा ८८ १७. वही, गाथा २२१-२२२ १८. सुत्तपाहुड, गाथा १७ १९. प्रवचनसार, गाथा २५८ २०. भावपाहुड, गाथा ९७ २९. वही, गाथा ९७

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