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6 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 भी है कि वह आहार में, उपवास में, निवास में, गमन में, उपकरण में, विकथाओं में तथा श्रमण में भी आसक्ति नहीं करता है।३२ जीव मरे या जिये सावधानी न वरतने पर निश्चित रूप से श्रमण को हिंसा का दोष लगता है, किन्तु समितियों के पालन में प्रयत्नशील होने पर श्रमण को पाप बन्ध नहीं होता है।३३ यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भावों की विशुद्धि नहीं होती है और चित्त में विशुद्धि न होने पर कर्मों का क्षय नहीं होता है।३४ जिस वस्तु के ग्रहण करने और विसर्जन न करने में दोष न लगे, उसी को लेकर श्रमण काल और क्षेत्र को जानकर प्रवृत्ति करे।५ जो वस्तु अप्रतिसिद्ध है, असंयत जनों के द्वारा प्रार्थनीय नहीं है, मूर्छा आदि की प्रवृत्ति कराने वाली नहीं है, उसे ही श्रमण को अल्प मात्रा में ग्रहण करना चाहिये।३६ तीन वर्गों में से एक वर्ण वाला, रोगरहित, तप को करने में समर्थ, वयस्क, प्रशस्त सुख वाला, अपवाद रहित व्यक्ति इस निर्ग्रन्थ लिङ्ग को ग्रहण करने योग्य है।३७ श्रमण इस लोक में निरपेक्ष और परलोक में अभिलाषा रहित तथा उचित आहार-विहार करता हुआ कषाय रहित होता है।३८ श्रमण बाह्य अन्नाहार का ग्रहण एषणा दोष रहित करता है, अत: वह युक्त आहार ग्रहण करने पर भी निराहारी होता है।३९ श्रमण चाहे बालक हो या वृद्ध, थका हुआ हो, रोगी हो फिर भी वह करने योग्य चारित्र इस प्रकार करे कि उसके मूलगुणों का उच्छेद न हो। यदि श्रमण आहारविहार में देश, काल, श्रम, शक्ति और उपधि को अच्छी तरह जानकर ऐसी प्रवृत्ति करता है, जिसमें अल्प सावध हो तो उसके संयम का छेद नहीं होता है। इस प्रकार श्रमण की चर्या मोक्षमार्ग में कार्यकारी है। श्रमण चर्या ग्रहण करने का उद्देश्य संसार-सागर से पार उतरकर निर्वाण को प्राप्त करना है और निर्वाण शुद्धोपयोग के बिना सम्भव नहीं है। शुद्धोपयोग में आत्मभाव ही प्रमुख है। इसमें परभाव के लिये किञ्चित् भी स्थान नहीं है। अत: अपनी शुद्धात्मा में स्थिरचित्त होकर निर्वाण प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। इसके बिना अन्य कोई उपाय नहीं है। अब यहाँ श्रमणाभास के स्वरूप पर विचार करते हैं। अन्तरङ्ग में चित्त की शुद्धि न होना और ऊपर से श्रमण जैसा वेष धारण करना श्रमणाभास है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमणाभास का लक्षण करते हुये लिखा है कि
___ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपउत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ।। ४२