________________
कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास : 7 अर्थात् सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि व्यक्ति जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों में श्रद्धान नहीं करता है तो वह श्रमण नहीं है, अपितु बाह्य में श्रमण जैसा आचरण अथवा वेष धारण करने के कारण श्रमणाभास है। इसी को स्पष्ट करते हुये आचार्य अमृतचन्द सूरि ने लिखा है कि 'आगमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपःस्थोऽपि जिनोदितमनन्तार्थनिर्भरं विश्वं स्वेनात्मना ज्ञेयत्वेन निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्धानः श्रमणाभासो भवति'।४३ अर्थात् आगम का ज्ञाता होने पर भी, संयत होने पर भी, तप में स्थित होने पर भी जिनोक्त अनन्त पदार्थों से भरे हुये विश्व को अपने आत्मा द्वारा ज्ञेय रूप से जानता है, इस कारण उस विश्व में आत्म प्रधान है, जो जीव उसका श्रद्धान नहीं करता है वह श्रमणाभास है। जिसकी दृष्टि आगम का अनुसरण नहीं करती है, उसके संयम नहीं होता है और जिसके संयम नहीं होता है वह श्रमण नहीं होता है। यदि भगवान् जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों में श्रद्धान नहीं है तो मात्र आगम के ज्ञान से मुक्ति नहीं हो सकती है
और यदि पदार्थों के प्रति श्रद्धान है तो भी असंयत अर्थात् चारित्र रहित व्यक्ति के मुक्ति सम्भव नहीं है। ५ जिसकी देह आदि पदार्थों में परमाणु मात्र भी मूर्छा है, ऐसा सर्वागम का ज्ञाता भी मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ नहीं है।४६ यदि श्रमण अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है तो वह विविध कर्मों का बन्धन करता है।४७ जिसने सूत्र के अर्थ और पदों का निश्चय किया है, जिसने कषायों का शमन किया है और अधिक तप करने वाला भी है, किन्तु यदि लौकिक जनों का संसर्ग नहीं छोड़ा है तो वह असंयत ही है। इसी प्रकार यदि कोई निम्रन्थ मुद्रा को ग्रहण कर लौकिक कार्यों में लग जाता है तो वह संयत तप युक्त होने पर भी लौकिक ही है, अलौकिक नहीं है।४९ वैयावृत्ति में उद्यत हुआ श्रमण यदि जीवों को कष्ट पहुँचाता है तो वह श्रमण नहीं है।५० जो श्रमण गुणों में हीन होने पर भी "मैं श्रमण हूँ' ऐसा मानकर गर्व करके गुणों में अधिक श्रमण से विनय की इच्छा करता है तो वह श्रमण अनन्त संसारी है।५१ यदि