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कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास : 5 यहाँ भाव श्रमण का अर्थ सम्यग्दृष्टि श्रमण से है और द्रव्य श्रमण का अर्थ मिथ्यादृष्टि श्रमण से है। क्योंकि भाव श्रमण ही प्रथम लिङ्ग है। द्रव्यलिङ्ग परमार्थ नहीं है अर्थात् भाव के बिना द्रव्यलिङ्ग परमार्थ की सिद्धि करने में समर्थ नहीं है।२३ जो साधु शरीर आदि परिग्रह से रहित है, मान कषाय से पूर्णत: मुक्त है तथा जिसकी आत्मा आत्म स्वरूप में तल्लीन है, वस्तुत: वही श्रमण भावलिङ्गी है।२४ बाह्य परिग्रह का त्याग करना तथा समस्त शास्त्रों का पढ़ना भावरहित जीवों के लिये निरर्थक है।२५ भाव श्रमण अर्थात् सम्यग्दृष्टि मुनि सुखों को प्राप्त करता है और द्रव्य श्रमण अर्थात् मिथ्यादृष्टि मुनि दुःखों को प्राप्त करता है। इस प्रकार भाव और द्रव्य श्रमण के क्रमशः गुण और दोषों को जानकार भाव श्रमण होने का प्रयत्न करना चाहिए।२६ श्रमण को आगमचक्खू२७ कहा गया है। अर्थात् श्रमण की प्रवृत्ति आगमानुसारी होती है। वह आगम के प्रति समर्पित होता है। क्योंकि आगमानुसार की गई श्रमण की प्रवृत्ति श्रेष्ठ कही गई है। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है। एकाग्रता पदार्थों के निश्चय से आती है। पदार्थों के प्रति निश्चय आगम से होता है। अतः आगम में कही गई श्रमण की प्रवृत्ति ही श्रेष्ठ है।२८ श्रमणचर्या स्वीकार करने का मुख्य उद्देश्य कर्मों का पूर्णरूपेण क्षय करके मुक्ति को प्राप्त करना है, किन्तु जब श्रमण आगम से रहित होता हुआ न अपने को जानता है, न ही दूसरे को जानता है और जब वह स्व-पर पदार्थों को नहीं जानता है तो वह कर्मों का क्षय कैसे करेगा? अर्थात् ऐसी स्थिति में वह श्रमण कभी भी कर्मों का क्षय नहीं कर सकेगा। कर्मों का क्षय नहीं करेगा तो मुक्ति को प्राप्त नहीं होगा तथा संसारसागर में निरन्तर भ्रमण करते हुये दुःख प्राप्त करता रहेगा।
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि।
अविजाणंतो अत्ये खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।।२९ आगमानुसारी प्रवृत्ति करने से श्रमण पर पदार्थों के प्रति तटस्थ हो जाता है। इसलिये वह शत्रु और मित्र समूह में समान दृष्टि वाला होता है। सुख और दुःख की स्थिति में वह समान हो जाता है। वह किसी के द्वारा प्रशंसा करने पर फूलता नहीं है और निन्दा करने पर दुबला नहीं होता है। उसे मिट्टी के ढेले और स्वर्ण में कोई अन्तर दिखलाई नहीं देता है, अपितु उसकी दृष्टि में सभी पुद्गल की पर्यायें होती हैं। जीवन अथवा मरण में वह समभाव वाला होता है।३० जो सदा ज्ञान और दर्शन आदि में प्रतिबद्ध रहता है तथा मूल गुणों के पालन में प्रयत्नशील रहता है, वह परिपूर्ण श्रमण होता है।३१ श्रमण की एक विशेषता यह