Book Title: Sramana 2015 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और प्रमणाभास : 3 हो सकती है। इस प्रकार उक्त दोनों लिङ्ग ही अपुनर्भव-फिर से जन्म धारण नहीं करना अर्थात् मोक्ष के कारण हैं।" आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने स्पष्ट लिखा है कि यदि आप मोक्षाभिलाषी हैं तो बन्धुवर्ग से पूछकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्याचार रूप पञ्चाचार को श्री गुरु से ग्रहण करें। श्रमण के जो द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग कहे गये हैं, उनमें श्रमण का यथाजात बाह्य रूप द्रव्यलिङ्ग है और उसकी अन्तरङ्ग शुद्धि भावलिङ्ग है -ये दोनों लिङ्ग ही मोक्ष प्राप्ति के उत्कृष्ट साधन हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमण का लक्षण करते हुये प्रवचनसार में लिखा है कि सुविदिदपयत्यसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।। अर्थात् पदार्थों और सूत्रों को अच्छी तरह जानने वाले, संयम और तप से युक्त, राग से रहित, सुख और दुःख में समान भाव रखने वाले शुद्धोपयोगी श्रमण हैं। उपयोग तीन प्रकार का है- अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग। यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे ही श्रमण कहा है जो शुद्धोपयोगी है। क्योंकि शुद्ध के पास ही श्रामण्य है, शुद्ध के पास ही दर्शन और ज्ञान है, शुद्ध का ही निर्वाण होता है और शुद्ध ही सिद्ध स्वरूप है। सद्धस्स य सामण्णं भणिदं सद्धस्स दंसणं णाणं। सुद्धस्स य णिव्वाणं सोच्चिय सुद्धो णमो तस्स।।११ यद्यपि शास्त्रों में दो प्रकार के श्रमणों का उल्लेख है- एक शुद्धोपयोगी श्रमण और दूसरे शुभोपयोगी श्रमण किन्तु इनमें शुद्धोपयोगी श्रमण निरास्रव हैं और शेष अर्थात् शुभोपयोगी सास्रव हैं।१२ बिना सम्यक्त्व के शुद्धोपयोग सम्भव नहीं है और मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व के बिना शुभोपयोग की भूमिका भी कार्यकारी नहीं है। क्योंकि पापारम्भ को त्यागकर सम्यक्त्व के बिना शुभ चारित्र में उद्यमी होता हुआ जीव यदि मोह आदि को नहीं छोड़ता है तो वह जीव अपने शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है।१३ शुद्धात्मा की प्राप्ति के लिये मोह का त्याग अवश्यम्भावी है। इसलिये आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि जो जाणदि अरहंतं दव्यत्त-गुणत्त-पज्जयत्तेहिं । सो जाणद अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लय।।१४

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