Book Title: Sramana 2015 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास प्रो० कमलेश कुमार जैन जैन-धर्म-दर्शन में भगवत् कृपा के लिए कोई स्थान नहीं है, अपितु प्रत्येक जीव पुरुषार्थ के माध्यम से ही अपने आप को उत्तरोत्तर उन्नत बनाता हुआ श्रमण जीवन को स्वीकार कर अन्त में मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। जीव और कर्म का अनादिकालीन सम्बन्ध है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जब से जीव है तब से कर्म बन्धन है और इसी कर्मबन्धन को क्रमश: काटकर अन्त में कर्मबन्धन से पूर्ण छुटकारा मुक्ति है, मोक्ष है, जीव का निर्वाण है और यह सब सकल चारित्र रूप श्रमणचर्या को धारण किये बिना सम्भव नहीं है। क्योंकि तैंतीस सागर की आयु वाले सर्वार्थसिद्धि के देव भी, जो सतत् तत्त्वचर्चा में तल्लीन रहते हैं, वे भी सकल चारित्र को धारण किये बिना मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह है श्रमणचर्या का महत्त्व। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् अणुव्रतों का पालन करते हुए श्रावक द्वारा बारह व्रतों का निरतिचार पालन करना, पुन: ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हुए महाव्रतों को स्वीकार करना और अट्ठाइस मूलगुणों का पालन करना मुनिचर्या का सम्यक् स्वरूप है। इसी मुनिचर्या का सम्यक् रीति से पालन करने वाला व्यक्ति श्रमण संज्ञा से विभूषित होता है। चत्तारिदण्डक में साधु शब्द से आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी और साधु परमेष्ठी- इन तीन को ग्रहण किया गया है। इसलिए साधु और श्रमण- ये दोनों समानार्थक हैं। श्रमण सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्र प्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान गोचरी वृत्ति वाले, पवन के समान निस्संग अर्थात् सभी जगह बेरोक-टोक विचरण करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी अर्थात् सदाकाल तत्त्वों का प्रकाशन करने वाले, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान अकम्प (अडोल), चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुञ्ज युक्त, क्षिति के समान बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान अनियत वसतिका में रहने वाले, आकाश के समान निरालम्बी (निर्लेप) और सदाकाल परमपद का अन्वेषण करने वाले होते हैं।

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