Book Title: Sramana 2013 04 Author(s): Ashokkumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ 2 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 2 / अप्रैल-जून 2013 महापुरुष हैं जिनको वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों परम्पराएँ समान रूप से आदर देती हैं और उन्हें महापुरुष के रूप में स्वीकार करती हैं। वस्तुत: वासुदेव श्रीकृष्ण के विराट व्यक्तित्व का ही यह प्रभाव है कि अनेक धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ उन्हें अपने वाङ्मय में सम्मिलित करके स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती हैं। इन सभी परम्पराओं में ऐसे भक्तों को आसानी से खोजा जा सकता है जो श्रीकृष्ण का नामस्मरण करके अपने मानस को आनन्द विभोर करते हैं और अपना आराध्य देव स्वीकार करते हैं। वैदिक परम्परा में जहाँ कृष्ण वासुदेव को विष्णु का अवतार मानकर उन्हें भगवान् स्वीकार किया गया है। वहीं बौद्ध साहित्य में प्रचलित जातक कथाओं के अन्तर्गत घट जातक का सम्बन्ध कृष्ण चरित से है। जैन परम्परा में कृष्ण को ६३ शलाका(श्लाघनीय, प्रशंसनीय) पुरुषों के अन्तर्गत ५४ वां शलाका पुरुष माना गया है तथा उन्हें भावी तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया गया है। ध्यातव्य है कि जैन परम्परा में जीवन के विकास का सर्वोच्च पद तीर्थंकर पद के रूप में स्वीकृत है। तीर्थंकर के बाद चक्रवर्ती और अर्ध-चक्रवर्ती के रूप में वासुदेव की परिगणना है। चक्रवर्ती जहाँ छ: खण्ड के अधिपति होते हैं वहाँ वासुदेव तीन खण्ड के अधिपति माने गये हैं। अत: कृष्ण वासुदेव तीन खण्ड के अधिपति थे।५ श्रीकृष्ण गत जीवन में वासुदेव रहें हैं और भावी जीवन में तीर्थंकर होंगे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन परम्परा में वे कितने उच्चकोटि के सम्मानित महापुरुष हैं। जैन परम्परा प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालखण्ड में नौ-नौ वासुदेवों का होना मानती है और वर्तमान अवसर्पिणीकाल के नौवें अर्थात् अंतिम वासुदेव के रूप में श्रीकृष्ण को स्वीकार करती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उक्त तीनों परम्पराओं में बड़े आदर के साथ कृष्ण वासुदेव का गुणोत्कीर्तन किया गया है। उनके अद्भुत व्यक्तित्व को देखकर यह बोध हो जाता है, महापुरुषों का जीवन, क्षेत्र और काल की सीमा से परे अर्थात् देशातीत और कालातीत हो जाता है। सचमुच में कृष्ण वासुदेव युगपुरुष थे। उनका जीवन क्षीरसागर की भाँति विराट और तृप्तिदायक था। अत: सर्वत्र उन्हें श्लाघनीय और वन्दनीय स्वीकार किया गया है। भारतीय धर्मपरम्पराओं में सदैव सदाचार तथा न्याय-नीति सम्पन्न जीवन को ही सर्वोच्च प्रतिष्ठा दी गई है। सत्ता और विद्वत्ता की भी प्रतिष्ठा है किन्तु उसमें धर्म, न्याय, नीति आदि सदाचार के गुण हों तभी, अन्यथा धर्माचरण विहीन मनुष्य कितना ही सत्ता-सम्पन्न क्यों न हो जाए, वह कभी जगत्-पूज्य नहीं हो सकता। कृष्णPage Navigation
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