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१० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर-१०
न नियतफला भावाः कर्तुं फलान्तरमीशते
जनयति खलु ब्रीहेर्बीजं न जातु यवाङ्कुरम् ।। निश्चित ही भारतीय दृष्टि से साहित्यसाधना एक अध्यात्म साधना है और उसका एकमात्र उद्देश्य आन्तरिक शान्ति है। डॉ. नन्दी ने इसे शान्तिशतक से उद्धृत बतलाया है। शतपत्रम् में हमने भी कुछ ऐसा ही उद्गार व्यक्त किया है
कविता यदि कीर्तये धनाय व्यवहाराय शरीरशोधनाय । व्यवसायमिमं विभावयामो व्यवसायः कविता कदापि नासीत् ।।
संस्कृत महाकाव्य सीताचरितम्, जो अब उत्तरसीताचरितम् नाम से प्रसिद्ध है, उसके मुखबन्ध में भी हमारी विनती थी
न यशसे न धनाय शिवतरक्षतिकृतेऽपि च नैव कृतिर्मम ।
इयमिमां भरतावनिसंस्कृतिं सुरगवीं च निषेवितुमुद्गता' ।। मम्मट के समय तक काव्य और नाट्य की धारणाएँ अनेकता तक ढल चुकी थीं। मम्मट केवल काव्य तक सीमित रहे, जबकि आचार्य हेमचन्द्र ने नाट्य-परिभाषाओं को भी स्थान दिया और काव्यानुशासन की विवेक नामक विस्तृत विवरणिका में उनका विशद विवेचन भोजराज की भाँति किया। हेत्वलङ्कार पर विवेक में आचार्य हेमचन्द्र ने रुद्रट से लेकर मम्मट तक हुए पक्ष-प्रतिपक्ष का विस्तृत विवेचन किया और उसे अन्ततः अमान्य घोषित कर दिया। जिस रूपक को मम्मट ने केवल सादृश्यमूलक आरोप तक सीमित रखा था उसे आचार्य हेमचन्द्र ने भी उसी रूप में प्रस्तुत किया, यद्यपि परवर्ती शोभाकरमित्र उसे आरोप सामान्य तक व्यापक मानते पाए जाते हैं।
२. आचार्य हेमचन्द्र रससूत्र में स्थायी भाव को भी स्थान देते हैं। उनके अनुसार रससूत्र का स्वरूप ऐसा है— विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यक्तः स्थायी भावो रसः। यह भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के सप्तम अध्याय में आए निम्नलिखित वचन का ही रूपान्तर था'विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यक्तः स्थायी रसनाम लभते किन्तु हेमचन्द्राचार्य के उक्त सूत्र में स्पष्ट रूप से मम्मट के काव्यप्रकाश की निम्नलिखित कारिकाओं की अनुश्रुति है
कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ।