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आचार्य हेमचन्द्र काव्यशास्त्रीय परम्परा में अभिनवगुप्त के प्रतिकल्प : ९ है। यही एकमात्र मार्ग था जिससे आलोचना को समग्रता मिल सकी है। इसी से रस को काव्य में स्थान मिल सका। अन्यथा वह फेंक दिया गया था रसिक में, जो काव्य का अनुभविता है, काव्य नहीं। उद्भट तक के आचार्य इस तथ्य से अवगत थे। वे वस्तुवादी और तथ्यपूर्ण आलोचना के पक्षपाती थे। ध्वनिवादियों के समान वे कल्पनालोक के विपर्यस्त विचारक नहीं थे। हम अध्येता भी भावना में अधिक बहे और इसी विपर्यास की स्थिति में इस देश की प्रज्ञा ने काव्यशास्त्र के इतिहास की मध्यवर्ती एक सहस्राब्दी (ई. सन् ८०० से २०००) बिता दी। आचार्य हेमचन्द्र भी यद्यपि इसी अवधि की देन हैं तथापि वे अधिक भावुक न होकर कुछ सावधान मिलते हैं। अपने इतिहास में हमने आचार्य हेमचन्द्र को उचित गौरव दिया है। उन्हें ध्वनिवादी आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त और मम्मट इन तीनों आचार्यों का ज्ञान है किन्तु वे इनके समान अतिवादी नहीं हैं। वे स्वयं भी विचार करते और अपने तर्कों के साथ स्वतन्त्र निर्णय लेते हैं। यह तथ्य उनके निम्नलिखित निर्णयों से प्रमाणित है
१. काव्यप्रयोजन के रूप में मम्मट ने जो छ: लाभ गिनाए थे उनमें से आचार्य हेमचन्द्र ने केवल तीन लाभों को अपनाया-आनन्द, यश और कान्तासम्मित उपदेश को। धन, व्यवहार-कौशल तथा अनर्थनिवारण को वैकल्पिक स्थान भी नहीं दिया। उनका कथन है
धनमनैकान्तिकम्, व्यवहारकौशलं शास्त्रेभ्योऽपिअनर्थनिवारणम् । प्रकारान्तरेणापीति न काव्यप्रयोजनतया अस्माभिरुक्तम् ।।
यद्यपि कार्य या कारण में वैलक्षण्य का निवेश कर आचार्य हेमचन्द्र त्यक्त प्रयोजनों को भी नव्यन्याय के धरातल पर मान्य कर सकते थे। आगे बढ़कर काव्य के साथ प्रयोजन की अनिवार्यता को अमान्य भी किया जा सकता था। उसके लिए आदिकवि का दृष्टान्त था ही। यह धृष्टता हमने काव्यालङ्कारकारिका में की भी है।
काव्य या साहित्य के प्रयोजन के विषय में आचार्य हेमचन्द्र ने साहित्य मनीषियों के लिए एक अदभुत सुभाषित उद्धृत किया है। यह सुभाषित एक प्रकार की गायत्री विद्या है, जिसे हमें सतत जपना है
उपशमफलाद् विद्याबीजात् फलं धनमिच्छतो भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् ।