Book Title: Sramana 2008 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ होती है। वनों की कमी मानव जीवन के लिए कितनी हानिकारक हो सकती है इसका बोध जैन मनीषियों को पूर्व में ही था, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। 'वराङ्गचरित' में वनों, उद्यानों, वाटिकाओं तथा धर्मनाथ रचित 'धर्मशर्माभ्युदय' में नदी के तट पर वृक्षारोपण करने को प्रेरित किया गया है। जैन मान्यतानुसार जिस प्रकार मानव शरीर जन्मता है उसी प्रकार वनस्पति भी जन्म लेती है और विकसित होती है। मानव की भाँति वनस्पति भी संगीत, प्रेम और सहानुभूति को स्वीकार करती है। शरीर के विकास के लिए जिस प्रकार अन्न की आवश्यकता होती है उसी प्रकार वनस्पति को भी पानी, खाद, सूर्य की किरण आदि की आवश्यकता होती है । शरीर का कोई अंग जब कट जाता है तो वह सूख जाता है उसी प्रकार वनस्पति भी कटने के बाद सूख जाती है । शरीर सचित्त है तो वनस्पति भी सचित्त है, शरीर नश्वर है तो वनस्पति भी नश्वर है । ११ मनुष्य और वनस्पति के बीच समानता बताते हुए 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है कि मनुष्य जन्मता है, वनस्पति जन्मती है। मनुष्य बढ़ता है, वनस्पति बढ़ती है। मनुष्य चैतन्ययुक्त है, वनस्पति चैतन्ययुक्त है। मनुष्य छिन्न होने से क्लान्त होता है, वनस्पति भी छिन्न होने से क्लान्त होती है। मनुष्य भी अनित्य है और वनस्पति भी अनित्य है। मनुष्य उपचित होता है, वनस्पति भी उपचित होती है। मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है।" अत: जैन परम्परा का पर्यावरण विज्ञान यह मौलिक सूत्र प्रस्तुत करता है कि विश्व में केवल मेरा ही अस्तित्व नहीं है, बल्कि अन्यों का भी अस्तित्व है। ६ ܘ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। परन्तु इस संरक्षण के पीछे मन, वचन और काय की एकरूपता सन्निहित है। हमारी इच्छाएँ-कामनाएँ और लालसाएँ असीम हैं तथा वस्तुएँ सीमित हैं, तो क्या सीमित से असीमित इच्छा की पूर्ति की जा सकती है? नहीं! वैचारिक रूप में ऐसा जरूर कर सकते हैं लेकिन प्रायोगिक रूप में नहीं। जीवन की यथार्थता प्रायोगिकता में है न कि वैचारिकता में । अतः पर्यावरण संतुलन के लिए हमें अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करना होगा, संयम की ओर अग्रसर होना होगा। 'समवायांगसूत्र' सत्रह प्रकार के संयम बताए गए हैं- पृथ्वीकाय संयम, अप्काय संयम, तेजस्काय संयम, वायुकाय संयम, वनस्पतिकाय संयम, द्वीन्द्रिय जीव संयम, त्रीन्द्रिय जीव संयम, अजीवकाय संयम, प्रेक्षा संयम, उपेक्षा संयम, अपहृत्य संयम, वचन संयम और काय संयम । भगवान महावीर ने पर्यावरण की क्रियान्विति का मार्ग प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिन जीवों की हिंसा के बिना तुम्हारी जीवन - यात्रा चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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