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पर्यावरण और वनस्पति :
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घनी छाया वाला बना रहता है। यहाँ मुनिवर सीताजी से आग्रह करते हैं कि आप हाथ जोड़कर इस वृक्ष से आशीर्वाद की याचना करें। इसके बाद आप चाहें तो इसकी छाया में ठहर जाएं या आगे बढ़ जाएं।''
ऐसा नहीं है कि संवेदनशील केवल मानव ही है। महर्षि ने वृक्ष को भी संवेदनशील दिखाया है। राम, वनवास की पहली रात को वृक्षों के हिलने और पक्षियों की चहचहाहट को सुनकर लक्ष्मण से कहते हैं- लक्ष्मण हमारे वनवास की यह पहली रात है, अतः अब तुम्हें नगर के लिए उत्कण्ठित नहीं होना चाहिए। इन सूने वनों को तो देखो। यहाँ नाना प्रकार के पशु-पक्षी अपनी-अपनी बोली बोल रहे हैं। यह सारी वनस्थली इनके स्वरों से व्याप्त हो रही है। ऐसा लगता है पूरा वनप्रदेश ही रो रहा है।'६
इसी प्रकार राम के वनवास जाते समय याज्ञिक ब्राह्मण कहते हैं- भगवन् हमने जो यज्ञ आरम्भ कर रखा है वह तो आपके लौट चलने पर ही सम्पन्न होगा, अतः आप लौट चलें। देखिए न इन वृक्षों की दीन-हीन दशा को। जड़ों द्वारा जकड़े होने के कारण ये आपके पीछे-पीछे तो नहीं आ सकते, परन्तु वायु के वेग से इनमें जो सायंसायं का शब्द हो रहा है उसके द्वारा मानों ये आपसे लौटने का निवेदन कर रहे हैं।"
इस प्रकार के अनेकों उद्धरण रामायण में भरे पड़े हैं जो मानव और प्रकृति के अटूट रिश्ते को दर्शाते हैं। फिर वृक्षों के साथ बैर कैसा? निरीक्षण बताते हैं कि स्वतंत्रता के बाद देश में लगभग ४० लाख हैक्टेयर भूमि से वनों का क्षरण हो गया है। हमारे वन क्षेत्र लगभग ३.८% रह गये हैं। फलतः हमारी सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ प्रभावित हुई हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं कि वृक्ष/वन मिट्टी के बहाव को रोकने, रेगिस्तान को न बढ़ने देने, गिरते हुए जल स्तर को रोकने तथा पर्यावरण को शुद्ध एवं स्वस्थ बनाने का कार्य करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि वन और मानव जीवन में गहरा सम्बन्ध है।
जैन धर्म में भी जैव-विविधता के संरक्षण पर गहराई से विचार किया गया है। भगवान् महावीर ने कहा है- जो लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करते हैं, वे उसके आश्रित नाना प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। जैन धर्म में वृक्षों को काटकर उनसे आजीविका करना (वणकम्मे),लकड़ी काटकर कोयला बनाने का व्यवसाय करना (इंगालकम्मे) और वृक्ष को काट-छीलकर विभिन्न प्रकार की गाड़ियों को बनाने एवं बेचने के व्यवसाय (साड़ीकम्मे) का गृहस्थों के लिए निषेध किया गया है। इसके पीछे जैन चिन्तकों की मानव परिवेश में वनों की महत्ता परिलक्षित
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