________________
श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ऊँचानगर शाखा का सम्बन्ध बुलन्दशहर से तभी जोड़ा जा सकता है जब उसका अस्तित्व ई०पू० प्रथम शताब्दी के लगभग रहा हो। मात्र यही नहीं उस काल में वह ऊँचानगर कहलाता भी हो । इस नगर के प्राचीन 'बरण' नाम का उल्लेख तो है, किन्तु यह भी ९-१०वीं शताब्दी से पूर्व का. ज्ञात नहीं होता है । बारण ( बरण ) नाम से कब इसका नाम बुलन्दशहर हुआ, इसके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की है। यह हिन्दुओं द्वारा ऊँचागाँव या ऊँचानगर कहा जाता था-मुझे तो यह भी उनकी कल्पना सी प्रतीत होती है। इस सम्बन्ध में वे कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। बरन नाम का उल्लेख भी मुस्लिम इतिहासकारों ने दसवीं सदी के बाद ही किया है । इतिहासकारों ने इस ऊँचागाँव किले का सम्बन्ध तोमर वंश के राजा अहिवरण से जोड़ा है अतः इसकी अवस्थिति ईसा के पांचवीं-छठी शती से पूर्व तो सिद्ध ही नहीं होती है। यहाँ से मिले सिक्कों पर 'गोवितसबाराणये' ऐसा उल्लेख है । स्वयं कनिंघम ने भी यह सम्भावना व्यक्त की है कि इन सिक्कों का सम्बन्ध वारणाव या वारणावत से रहा होगा । वारणावर्त का उल्लेख महाभारत में भी है जहाँ पाण्डवों ने हस्तिनापुर से निकलकर विश्राम किया था तथा जहाँ उन्हें जिन्दा जलाने के लिये कौरवों द्वारा लाक्षागृह का निर्माण करवाया गया था । बारणावा ( बारणावत ) मेरठ से १६ मील और बुलन्दशहर (प्राचीन नाम बरन) से ५० मील की दूरी पर हिंडोन और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित है। मेरी दृष्टि में यह वारणावत वही है जहाँ से. जैनों का 'वारणगण' निकला था। 'वारणगण का उल्लेख भी कल्पसूत्र स्थविरावली एवं मथरा के. अभिलेखों में उपलब्ध होता है। अतः बारणावत ( वारणावर्त ) का सम्बन्ध. वारणगण से हो सकता है न कि उच्चै गरी शाखा से, जो कि कोटिकगण की शाखा १. ऐतिहासिक स्थानावली, पृ० सं० ६०८, ६४० २. कनिंघम-अर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, वाल्यू० १४, पृ० १४७ ३. वही, ४. ऐतिहासिक स्थानावली, पृ० सं० ८४३-४४ ५. कल्पसूत्र, स्थविरावली २१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org