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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१
कारण है कि उपकेशगच्छ की इस शाखा के प्रतिमा लेखों में कहीं द्विवंदनीकगच्छ और कहीं सिद्धाचार्यसंतानीय तथा किन्हीं-किन्हीं लेखों में दोनों विशेषणों का साथ-साथ प्रयोग मिलता है।
उपकेशगच्छ से सम्बद्ध ऐसे भी अनेक प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं जिनमें प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य न तो ककुदाचार्यसंतानीय बतलाये गये हैं और न ही सिद्धाचार्यसंतानीय। इससे यह स्पष्ट होता है कि उक्त शाखाओं (सिद्धाचार्यसंतानीय, ककुदाचार्यसंतानीय तथा द्विवंदनीक शाखा) से भिन्न इन मुनिजनों की परम्परा का अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व था। इस श्रेणी के अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण इस प्रकार है
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