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श्रमण, जुलाई-सितम्बर १९९१
ऋषभशैल चक्रवर्तियों का मान मर्दन करता है, वैसे ही कोटिशिला अर्ध-चक्री वासुदेवों की शक्ति का निकष बनती है । मेरु, ऋषभ और वैताढ्य ही जैन भक्ति-साधना और वास्तु-विधान के प्रारम्भिक आश्रय स्थल रहे हैं, जहाँ गुफा रूपी अकृत्रिम चैत्यालय अनन्त काल से विद्यमान हैं । वैताढ्य के सिद्धकूट पर दिव्य जिन भवनों का आयाम एक कोश माना गया है और इसलिये दिव्य जिनसदन के रूप में शाश्वत कोटिशिला का विस्तार एक कोश अथवा एक योजन ही परिकल्पित है ।
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उपर्युक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि कोटिशिला की भौगोलिक अवधारणा पर अति प्राचीनकाल से विश्वास चला आ रहा है । प्राकृत निर्वाणकाण्ड के अनुसार कोटिशिला कलिंगदेश में अवस्थित है, जबकि विविधतीर्थकल्प का लेखक मगध में इसकी संदेहपूर्ण उपस्थिति का संकेत देता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सोलहवें से इक्कीसवें तीर्थंकरों के जन्म स्थान मगध क्षेत्र से सम्बद्ध होने के कारण कोटिशिला की परिकल्पना मगध में कर ली गई । इसी प्रकार नवनारायणों के कथानक ने कोटिशिला को कलिंग देश में प्रतिष्ठित किया, क्योंकि प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ का सम्बन्ध पोदनपुर (कलिंग) से था । प्राचीन सन्दर्भों में मगध और कलिंग गतिशील देशवाचक संज्ञायें रही हैं और इनके आधार पर आज किसी निश्चित स्थान को कोटिशिला की संज्ञा नहीं दी जा सकती सच तो यह है कि शाश्वत कोटिशिला अनन्त नाम-रूपों में अवतरित होती रहीं है और सिद्ध क्षेत्रों की परवर्ती विकास परम्परा ने अब उसके भौगोलिक अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
प्रश्न यह है कि कोटिशिला तीर्थ क्या सचमुच विलुप्त हो चुका है ? उत्तर है - नहीं । अनादि लोक परम्परा उसे आज तक कोटि पहाड़ के रूप में जीवित रखे हुए है । कोटि पहाड़ पर अवस्थित 'सिद्ध. गुफा' और " टाठीबेर" नामक स्थल आज भी बुन्देलखण्ड में जनजन की श्रद्धा का आश्रय बने हुए हैं और ये भग्न शाश्वत कोटिशिला के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं । भौगोलिक मानचित्र पर "कोटि पहाड़" ७९° १' पूर्वी और २४° ३५' उत्तरी भू-रेखाओं पर अवस्थित है । वर्तमान बड़ागाँव से प्रारम्भ होकर उत्तर की ओर भदौरा तक लगभग ४ कि.मी. की यह पर्वत श्रृंखला समुद्र सतह से १३१३ फीट
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