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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ के अध्ययनार्थ अथवा प्रेरणा से प्रतिलिपि करायी गयी प्राचीन ग्रन्थों की दाता प्रशस्तियाँ, दो प्रबन्ध (उपकेशगच्छप्रबन्ध और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध - रचनाकाल-वि० सं० १३९३/ई० सन् १३३६)
और उपकेशगच्छ की कुछ पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में प्रतिष्ठापित जिन-प्रतिमायें मिली हैं, 'जिनमें से अधिकांशतः लेखयुक्त हैं। साम्प्रत लेख में उक्त साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। अध्ययन की सुविधा हेतु सर्वप्रथम साहित्यिक और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है
१. नवपयपयरण (नवपदप्रकरण)-महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में रचित १३७ पद्यों की यह रचना उपकेशगच्छीय कक्कसूरि के विद्वान् शिष्य जिनचन्द्रगणि पूर्वनाम कुलचन्द्र (देवगुप्तसूरि) की अनुपम कृति है। रचनाकार ने अपनी इस कृति पर वि० सं० १०७३/ई० सन् १०१६ में वृत्ति की रचना की, जिसका नाम श्रावकानन्दकारिणी है।'
नवपदटीका प्रोक्ता श्रावकानन्दकारिणी नोम्ना । श्रीदेवगुप्तसूरिभिर्भावयितव्या प्रयत्नेन ॥ साधूपयोगाय यया प्रयासः कृतः स्वपुण्याय च एष धर्मः । अतोत्र मात्सर्यमभिप्रपद्य मा कोपि कान्मिय पुण्यविघ्नं ।। त्रिसप्तत्यधिकसहस्र मासे कार्तिकसंज्ञिते । श्रीपार्श्वनाथचैत्ये तु दुर्गमीये च पत्तने । श्रावकानन्दटीकेयं नवपदस्य प्रकीर्तिता । जिनचन्द्रगणिनाम्ना तु गच्छे ऊकेशसंज्ञिते ।। कक्काचार्यस्य शिष्येण कुलचन्द्रसंज्ञितेन । तेनैषा रचिता टीका निर्जरार्थं तु कर्मणां । शिष्य-प्रशिष्यवंशस्योपकाराय जायते । टीकेयं नवपदस्यास्तु यथार्थेयं प्रवत्तिता ।। दलाल, सी० डी०---ए डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑफ मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द जैन ग्रन्थ भण्डार्स ऐट पाटन (बड़ोदरा-१९३७ ई०) पृष्ठ २-३ :
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