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सूडा-सहेली की प्रेम कथा
चालू पद्यांक के ही साथ है । ) दैव ने मूर्ख के सिर पर सींग और चतुर को पांख ही नहीं दी, अन्यथा मूर्ख सबको दौड़कर मारता और चतुर अपने पंखों द्वारा स्वेच्छापूर्वक विचरण करता? क्या उपाय किया जाये ? रोने से राज्य नहीं मिलता।
इस प्रकार शुक और सहेली के विमर्श में नेपथ्य से कोई देव वाणी हुई कि उत्तर-पश्चिम दिशा के मध्य में नन्दनवन जैसी वनमाला है। जिसकी मणिमय भूमि में बहुरूपी नाम का वृक्ष है। वहाँ चिड़ियांयमली चील एवं भारण्ड पक्षी निवास करते हैं । उस वृक्ष के पंच वर्णों फूल एवं मधुर रस वाले अमूल्य फल हैं, जहाँ देव-देवी नाटक-क्रीडादि करते हैं। वह वक्ष दिन में रस छोड़ता है, जिससे स्नान करने पर तुम अपना पुरुष-रूप पुनः प्राप्त कर सकोगे । हे शुक ! तुम मेरे स्वामी हो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। शुक ने देव के कथनानुसार रस-स्नान करके अपना प्रकृत मानव देह प्राप्त कर लिया। बादलों की ओट से निकले हुए सूर्य की भाँति शुकराज का तेजस्वी रूप देखकर राजकुमारी अत्यन्त हर्षित हुई और उसकी सखियाँ वारणा लेती हुई लँछणा करने लगी। सहेली के भवन में सर्वत्र हर्ष का साम्राज्य छा गया । __ शुकराज और सहेली का मनोवांछित पूर्ण हुआ। कुल देवता की प्रसन्नता पूर्वकृत पुण्य के प्रभाव से घर बैठे सज्जन-मिलाप हो गया। वे दोनों देवों की भाँति सुखों का विलास करते हुए काल निर्गमन करने लगे।
एक बार वसन्त ऋतु के समय वे क्रीड़ा कर रहे थे। शुकराज ने देखा कौवे के यहाँ एक हँसी गृहिणी थी, वे दोनों केलि करते थे। कौवे की आज्ञा पालन में हँसी तत्पर थी। जैसे वह कहता, हंसी करती, उसके लिये चुन-पानी प्रस्तुत करती। तारुण्य जाति-कुजाति नहीं देखता । धिक्कार है इस काम विडम्बना को इस प्रकार सद्गुरु उपदेश है कि नारी रूपी दीपक में पुरुष फतिंगें की भाँति गिरकर अपना नाश करता है। कामरूपी सरोवर पाप-जल पूरित है, जिसमें सारा जगत् डूबा हुआ है। दही विलोने पर मक्खन की भाँति विरले ही व्यक्ति तिर कर निकलते है, जहां स्त्री है, वहाँ मृगपाश है। मेरे
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