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जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ३९
वाले जीव को अणु परिमाणी मानते हैं। चार्वाक, शून्यवादी एवं जैन आत्मा को अणु एवं विभु के बीच में रखते हैं । जैन दार्शनिक आत्मा को सर्वव्यापी एवं अणुरूप न मानकर इनके बीच का मार्ग अपनाते हैं। जैनसम्मत जीव द्रव्य लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशों का धारक होते हुए भी संसार दशा में देहव्यापी अथवा मध्यम परिमाणविशिष्ट हो जाता है। जिसका जैसा शरीर ( छोटा, मध्यम, बड़ा) होगा उतने ही आकार की आत्मा हो जायेगी। जीव को देहव्यापी मानने के कारण जैनों की आलोचना भी की जाती है किन्तु यह आलोचना उचित नहीं लगती है क्योंकि चैतन्य न तो शरीर से बाहर पाया जाता है और न ही शरीर में किसी एक स्थान पर ही मिलता है। चैतन्य तो विद्युत प्रवाह की भाँति समस्त देह में व्याप्त है कर्तृत्व, भोक्तृत्व, सुखदुःखादि, बन्ध एवं मोक्षादि की व्यवस्था जीव को स्वशरीरव्यापी मानने पर ही सम्भव है सर्वव्यापी और अणु मानने पर नहीं। जैनों ने समुद्घातावस्था में चैतन्य का शरीर से बाहर जाना भी स्वीकार किया है वस्तुतः छोटा या बड़ा होना तो देह का धर्म है आत्मा का नहीं। आत्मा तो प्रकाशमात्र है। जिस स्थान पर आत्मा रूप दीपक स्थित होगा, बाधा न होने पर उस स्थान को प्रकाशित करेगा। वैसे जैन दार्शनिक भी ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा को सर्वगत ही मानते हैं किन्तु व्यवहारनय से यथार्थ की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है।
जैनों का आत्मा सांख्य, योग एवं अद्वैत वेदान्त के समान चैतन्य से सदा अविच्छिन्न होते हुए भी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और मीमांसा के समान यथार्थतः अनेक है। महावीर का कहना है कि आकाश की तरह एक ही जीव की सत्ता के समर्थक यथार्थवादी नहीं हैं । आकाश एक है किन्तु जीव प्रत्येक पिण्ड में भिन्न होते हैं अतः उन्हें सब जगह एक नहीं माना जा सकता है। एक जीव होने पर सुख, इन्द्रियादि की व्यवस्था सम्भव नहीं है। ईश्वर कृष्ण का भी यही विचार है। १. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा-१० पर श्री ब्रह्मदेव जी की टीका, प्रज्ञापना सूत्र,
३२९-३४९ २. प्रवचनसार-१।२३, तत्त्वार्थ सूत्र-५।१६, बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा-१० ३. सांख्यकारिका, १८
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