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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१ जैनों के अनुसार लक्षण ( चैतन्य ) की दृष्टि से सभी जीव समान हैं. किन्तु प्रत्येक शरीर में विशेष-विशेष उपयोग ( ज्ञान-दर्शन ) का अनुभव होता है। उपयोग के उत्कर्ष-अपकर्ष के तारतम्य से असंख्य भेद हो जाने के कारण जीवों की संख्या अनन्त है।' आत्मा स्वभाव से अमूर्त है एवं उसका कार्मण शरीर परमाणु के समान सूक्ष्म होता है। इसलिए शरीरों में प्रविष्ट होते और निकलते समय नहीं दिखाई देता है। वेदान्तियों ने संसार दशा में एक ही जीव का अनेकत्व स्वीकार किया है । वेदों एवं उपनिषदों के अनुसार एक तत्त्व (प्रजापति या ब्रह्म) समस्त सृष्टि का रचयिता है और विभिन्न जीवों में प्राण के रूप में स्थित है ।वह अच्छे-बुरे कर्मों से अप्रभावित रहता है। इसके बाद कहा है कि भूतात्मा वास्तविक कर्ता है जो प्रकृति के प्रभाववश अनेक हो जाता है। प्रथम स्थिति ईश्वरवाद की ज्ञापक है । दूसरी स्थिति सांख्य के प्रभाव से प्रथम स्थिति का सुधार अथवा रूपान्तर है। दूसरी स्थिति जैनों के विचार के अधिक समीप है यद्यपि जैन किसी ऐसे एक आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते जो अनेक होने में समर्थ हो ।६ ___अद्वैतवेदान्त के सर्वथा विपरीत जैनों ने मोक्ष दशा में भी स्वसम्मत सत् ( अनेकान्तात्मक एवं त्रिकालाबाधित ) चित् (चैतन्यमय होने से )-आनन्दमय ( ज्ञान से अलौकिक सुख के अभिन्न होने से ) आत्मा का अनेकत्व स्वीकार किया है। जीव द्रव्य किसी एक परमात्मा १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-१५८१-३ २. वही, १६८३ ३. अस्ति आत्मा जीवाख्यः शरीरेन्द्रियपजराध्यक्षः कर्मफलसम्बन्धी ।
शाङ्करभाव्य, १।३।१७ ४. ऋग्वेद-१०।१२१, अथर्ववेद-१०१७।८, गीता-१३।३३,
बृहदारण्यकोपनिषद्-३।८।८ ५. History of Indian Philosophy, Creative period (Belvalkar ___and Ranade), p. 337 प्रवचनसार पर टिप्पणी और आंग्लानुवाद, डॉ आदिनाथ नेमिनाथ
उपाध्याय, पृ० ६६ ७. उत्पादव्ययध्रौव्युक्त सत् । -तत्वार्थसूत्र ५।२९
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