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अपभ्रंश के जैन पुराण और पुराणकार
४९ में भी प्राप्त हुए हैं। हरिवंशपुराण की हस्तलिखित प्रति भण्डारकर
ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट-पूना में उपलब्ध है तथा यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई से वि०सं० १९९७ में प्रकाशित है।
महापुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ ला० द० शोध संस्थानअहमदाबाद तथा डा० कासलीवाल के अनुसार- भगवान दि० जैन मन्दिर अजमेर, दिगम्बर जैन बड़ा बीसपन्थी मन्दिर-दौसा, दि० जैन तेरह पन्थी मन्दिर-दौसा, दिगम्बर जैन सम्भवनाथ मन्दिर उदयपुर में उपलब्ध हैं । भट्टारकीय ग्रन्थ भण्डार--नागौर में भी इस पुराण की प्रतियाँ उपलब्ध हैं। ___ दसवीं शताब्दी में ही आचार्य पद्मकीति ने तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के जीवन चरित को लेकर पार्श्वपुराण की रचना की। यह १८ सन्धियों में विभक्त है। इसकी रचना संवत् ९९२ में पूर्ण की गयी। कवि ने अपनी गुरु परम्परा में सेनसंध के चन्द्रसेन, माधवसेन और जिनसेन का उल्लेख किया है। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार पार्श्वपुराण की समाप्ति शक सं०९९९ कार्तिक मास की अमावस्या को हुई है। इसमें नाना प्रकार के छन्दों से सुहावने ३१० कडवक तथा ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थ का प्रमाण है।६
पद्मकीर्ति कृत पार्श्वपुराण की हस्तलिखित प्रतियाँ दिगम्बर जैन दीवान जी मन्दिर, कामा; सरस्वती भवन; नागौर; आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर और दिगम्बर जैन ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, ब्यावर में उपलब्ध हैं।
महाकवि धवल भी दसवीं शताब्दी के विद्वान् हैं इनके द्वारा रचित हरिवंश पुराण १२२ सन्धियों में समाप्त हुआ है। इसमें कौरव१. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १७४ २. वही, पृ० १५६ ३. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डार की ग्रन्थ सूची (पञ्चम भाग) पृ० २९४ ४. भट्टारकीय दिगम्बर ग्रन्थ भण्डार सूची नागौर, भाग ३, पृ० २०२ ५. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १५७ ६. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ० २०९-२१० ७. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० १४७ ८. जिनरत्नकोश, पृ० ४६०
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