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अपभ्रंश के जैन
पुराण
और
पुराणकार
अनेक भाषा शास्त्रियों के अनुसार अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन प्राकृत की अन्तिम और वर्तमान भारतीय भाषाओं की आद्य अवस्थाओं के मध्य की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है । अपभ्रंश प्रायः सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी रही है अपभ्रंश से ही हिन्दी आदि भाषाओं का विकास हुआ, इस दृष्टि से इस भाषा के स्वरूप का बड़ा महत्त्व है ।
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- रीता बिश्नोई
अपभ्रंश का अर्थ है--जन बोली । जन बोली से अभिप्राय सामान्य लोगों की बोल-चाल की भाषा से है । वैयाकरणों की भाषा में अपभ्रंश का अर्थ अपशब्द है और अपशब्द का अर्थ है - ठीक से उच्चारित न होने वाले ( बिगड़े ) शब्द । लोक भाषा में इसका रूढ अर्थ है - गिरना, अथवा खिसकना । आचार्य भरतमुनि ने उकार बहुला कहकर जिस भाषा का परिचय दिया है, वह हिमाचल प्रदेश से लेकर सिन्ध तथा । समस्त उत्तर भारत में प्रचलित थी
हिमवत् सिन्धु सौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः । उकार बहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषा प्रयोजयेत् ॥
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नाट्य शास्त्र, १७, ६२ । इससे स्पष्ट है कि अपभ्रंश बोलचाल की भाषा थी और इस उत्तर भारतीय बोली को ही वैयाकरणों ने अपभ्रंश नाम दिया है ।
अपभ्रंश मैं अनेक विधाओं में मानव जीवन से सम्बन्धित कई विषयों पर लिखा गया है यथा - मुक्तक, प्रबन्ध काव्य, चरित काव्य, कथा और पुराण आदि । जैन साहित्य में अपभ्रंश भाषा में अनेक पुराणों की रचना हुई । ये सभी पुराण जैन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । इन अपभ्रंश पुराणों में पौराणिक महापुरुषों अथवा अधिकतर त्रेसठ शलाकापुरुषों का जीवन चरित वर्णित है । बारह या तेरह: १. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, पृ० ८
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