________________
४६
श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९१
सन्धियों से लेकर लगभग सवा सौ सन्धियों तक के पुराण काव्य उपलब्ध होते हैं । यह एक विचित्र संयोग है कि संस्कृत की भाँति अपभ्रंश पुराण भी राम-कथा को लेकर प्रारम्भ होते हैं । यहाँ यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि जैन अपभ्रंश साहित्य में एक ही नाम के अनेक पुराण उपलब्ध होते हैं जो कि विभिन्न आचार्यों द्वारा भिन्न-भिन्न शताब्दियों में लिखे गये हैं। इन पुराणों का पुराणकारों सहित परिचय इस प्रकार है
अपभ्रंश साहित्य के सर्वाधिक चचित एवं यशस्वी महाकवि स्वयम्भू है। इनको अपभ्रंश पुराण साहित्य का आदि कवि माना जाता है। स्वयम्भू की कृतियों में मिले कतिपय उल्लेखों के आधार पर वे कर्नाटक के साहित्य घराने के पिता मारुतदेव और माँ पद्मिनी की सन्तान थे। इनकी दो पत्नियां थीं, जो साहित्य साधना में इनकी सहायिका थीं। त्रिभुवन इनके पुत्र थे, जिन्होंने इनकी अधूरी कृतियों को पूरा किया।' पं० नाथूराम प्रेमी के अनुसार इनका समय वि० सं० ७३४ से ८४० के बीच माना जा सकता है। जबकि डा० भायाणी ने इनका काल ८४०-९२० ई० अनुमानतः निर्धारित किया है। महाकवि स्वयम्भू रचित दो पुराण उपलब्ध होते हैं--'पउमचरिउ' तथा 'रिट्ठणेमिचरिउ' ।
स्वयम्भू द्वारा रचित पउमचरिउ को 'रामायण पुराण' भी कहते हैं। इसमें ९० सन्धियाँ हैं-विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्या काण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, युद्धकाण्ड में २१ और उत्तर काण्ड में १३ । यह ग्रन्थ १२ हजार श्लोक प्रमाण है। इसमें ८३ सन्धियों की रचना स्वयम्भू देव ने की तथा शेष ७ सन्धि उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयम्भू ने लिखी है। १. जैन विद्या, स्वयंभू विशेषांक, पृ० ३० २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८७ ३. जैन विद्या, अप्रैल १९८४, पृ० १० ४. जिनरत्नकोश, पृ० ३३२. ५. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान,पृ० १५३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org