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जैनसम्मत आत्मस्वरूप का अन्य भारतीय दर्शनों से तुलनात्मक विवेचन ३७
और पुरुष को सदैव निर्विकार । सांख्यसम्मत पुरुष स्वयं को भ्रमवश कर्ता और भोक्ता समझता है। जैन दर्शन का ज्ञाम और आत्मा के विषय में समन्वयात्मक विचार प्रतीत होता है।' जीव और ज्ञान परस्पर न इतने भिन्न हैं कि मुक्त जीवों को ज्ञानरहित जड़ पदार्थ कह दिया जाए न इतने अभिन्न हैं कि जीव को ज्ञान मात्र मान लें । जीव ज्ञान से भिन्न भी है और अभिन्न भी। वस्तुतः यह शुद्ध चैतन्य रूप ही है।
जीव की नित्यता के विषय में चार्वाक एवं बौद्धों को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक विचारकों में मतैक्य है किन्तु नित्य आत्मा कर्मबन्धनों के कारण बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है अर्थात् विभिन्न देहादि रूप वस्त्रों को बदलता रहता है। उत्पत्ति और विनाश शरीर का धर्म है जीव का नहीं। देह में स्थित होने से आत्मा को अनित्य कहा जाता है। जन्म-मरण का चक्र कर्मबन्धनों से मुक्त होने तक चलता रहता है । जीव बौद्धों के विज्ञान एवं शून्य के समान क्षणिक एवं शून्यमात्र नहीं है । जैनों के आत्मा की नित्यता की तुलना गीता (२।२४) के विचारों से की जा सकती है। ___ संक्षेप में आत्मा की नित्यता, जन्म-मरण ( देहधर्म ), पुनर्जन्मादि के विषय में भारतीय दर्शनों में मतैक्य है। कुछ वैज्ञानिक भी आत्मा की नित्यता के समर्थक हैं। वैज्ञानिक पी० गेड्डेस लिखते हैं कि कुछ ऐसे विद्वानों ने जिनकी मान्यता "मिडीयोराइट वेहिकल थ्योरी" में है--यह सुझाव दिया है कि जीवन उतना ही पुराना है जितना कि जड़ । ____ जीव के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व के विषय में मतान्तर हैं। नैयायिक एवं वैशेषिक जीवात्मा का कर्तृत्व सत्य स्वीकार करते हैं किन्तु रामा१. Commentary on Sad-Darsana Samuccaya, Prof. Murty
(karika 48) p. 63 २. बृहद्व्यसंग्रह, गाथा ३ पर श्री ब्रह्मदेव जी की टीका ३. गीता, २।३० -8. Some authorities who have found satisfaction in the
Metheorite Vehicle-Theory have also suggested that life is as old as matter. ---Evolution, p. 70
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