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सूडा - सहेली की प्रेम कथा
*भँवरलाल नाहटा
जैनधर्म के चार अनुयोगों में एक धर्मकथानुयोग है । जन सामान्य की इस ओर विशेष रुचि होने के कारण कथा साहित्य बहुत ही विस्तृत परिमाण में उपलब्ध है । जैसे चामत्कारिक और कौतूहलप्रधान कथासाहित्य की ओर प्राचीन काल से ही विशेष लोकरुचि रही है, वैसे ही प्रेमकथाओं की ओर झुकाव भी किसी प्रकार कम न था । त्याग प्रधान जैनधर्म के अनुयायी ग्रन्थकारों ने ऐसी लोक कथाओं का निरूपण करते हुए भी धर्म-सदाचार और अन्त में सर्वस्व त्याग कर चारित्र स्वीकार करने और सद्गतिभाजन होने के रंग भरकर कथावस्तु - को ऐसे चित्रित किया है कि श्रोता अपनी आचार - मर्यादा में स्थित रहने का उपदेश प्राप्त कर सके । यह परम्परा अति प्राचीन थी और प्राकृत साहित्य की तरंगवती कथाएँ अपने आप में परिपूर्ण और तत्कालीन स्थिति और साहित्यिक महत्त्व की अमूल्य सामग्री प्रदान करती हैं । संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश की वह परम्परा हिन्दी - राजस्थानी और गुजराती में भी अबाध गति से चलती रही और इन भाषाओं में सभी जैन कवियों ने प्रेम-कथाएँ लिखीं, पर अभी तक इस ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ है । अतः साधारणतया यही धारणा बन गई है कि जैन धर्म में नीति व धर्म प्रधान साहित्य ही है । परन्तु जैन विद्वानों ने जिस प्रकार कौतूहल- प्रधान एवं धर्म-नीति काव्यों को अपनाया है, वैसे ही प्रेम-कथाओं पर भी अपनी लेखनी चलाई है | यहाँ सोलहवीं सदी की ऐसी ही एक सूडा - सहेली नामक राजस्थानी लोक प्रेमकथा का परिचय कराया जा रहा है जिसे सुप्रसिद्ध कवि सहजसुन्दर ने निर्मित किया है ।
सूडा सहेली या शुकराज सहेली के रचयिता कवि सहजसुन्दर सोलहवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध और विद्वान् कवि थे । आप अधिकांशतः राजस्थान और गुजरात में विचरे । ये उपकेशगच्छ के आचार्य सिद्धिसूरि के आज्ञानुवर्ती थे । इस गच्छ की एक गद्दी बीकानेर बस
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