Book Title: Shripal Charitra Author(s): Kashinath Jain Publisher: Jain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta View full book textPage 9
________________ पहला परिच्छेद राजा ने भी इस अवसर पर दरिद्रों को मुक्त हस्त से दान दिया। बन्दीगण कारागार से मुक्त कर दिये गये। शत्रुओं तक को सन्तुष्ट करने की चेष्टा की गयी। शहर में चारों ओर आनन्द की हिलोरें उठ रही थीं। कहीं मंगल-गान हो रहे थे, तो कहीं नाटक खेले जा रहे थे। कहीं बाजे बज रहे थे, तो कहीं दूसरे ही प्रकार से आनन्द व्यक्त किया जा रहा था। तात्पर्य यह कि समूचे शहर में इस महोत्सव की धूम मची हुई थी। बाहरवें दिन राजा ने अपने इष्ट मित्र और बन्धु-बान्धुवों को निमंत्रित किया। भोजनादि से निवृत्त होने के बाद वे सभी वस्त्राभूषण और नाना प्रकार की बहुमूल्य चीजें देकर सम्मानित किये गये। राजा ने समस्त जनों के सामने सहर्ष घोषित किया, कि इस कुमार द्वारा मेरी राज-ऋद्धि और प्रजा का पालन होगा, अतः इसका नाम मैं श्रीपाल रखता हूँ। परन्तु राजा के भाग्य में अधिक दिनों तक सन्तान सुख भोगना नहीं बदा था। श्रीपाल की अवस्था अभी पूरे पाँच वर्ष की भी न हुई थी, कि एक दिन शूल रोग से अचानक राजा का प्राणान्त हो गया। इस घटना से चारों ओर हा-हा कार मच गया । रानी कमलप्रभा अथाह शोक-सागर में विलीन हो गयी। उसका रूदन बड़ा ही करुणापूर्ण था। जो उसे सुनता उसी का हृदय द्रवित हो उठता उसके दुःख का कोई पार न था। उसकी व्याकुलता अवर्णनीय थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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