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७ श्री आचकाचार जी
गाथा-११,१२,१३R O O धर्म और शुक्ल ध्यान की साधना में ही लीन रहते हैं, तीनों मिथ्यात्व का अंश भी बुद्धि रूप सरस्वती का प्रकाश हुआ है। उनमें नहीं दिखता । शुद्ध धर्म के प्रकाशन में प्रयत्नशील हैं अर्थात् अपने शुद्ध (कुन्यानं तिमिरं पून) कुज्ञान रूपी अन्धकार से भरे हुए नेत्रों में जो (अंजनं स्वभाव की स्थिरता, लीनता का ही पुरुषार्थ करते रहते हैं। ऐसे गुरू अर्थात् जो , न्यान भेषजं) ज्ञानांजनशलाका औषधि लगाकर (केवल दिस्टि सुभावंच) केवली स्वयं तरते और अन्य जीवों के मार्गदर्शक हैं वे तीन लोक में वन्दनीय हैं,कहा भी के समान अपने स्वभाव को दिखाती है (जिन कंठं सास्वती नम:) जिन अर्थात्
जिनेन्द्र देव अथवा सम्यक्दृष्टि के कंठ में विराजमान सरस्वती को नमस्कार करता गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपकी,गोविन्द दियो बताय॥
८ विशेषार्थ- कमलासन पर कंठ में स्थित सरस्वती अर्थात् सुबुद्धि । व्यवहार तारण स्वामी ने भी कहा है
है में तीर्थंकर के मुख कमल से निकली दिव्य ध्वनि रूप वाणी को गणधरों ने गूंथा, जो बिन सुने सयानो होय, तो गुरु सेवा करे न कोय ।। सुन्न स्वभाव-८ शब्दों द्वारा विस्तार किया और शास्त्र रूप लिखा उसे जिनवाणी या सरस्वती
सच्चे गुरू ही आप तरें और पर को तारने वाले हैं, सद्गुरू का सत्संग जिस कहते हैं, जिसमें धर्म का वास्तविक स्वरूप बताया जाता है। जिसके स्वाध्याय, जीव को मिल जाये उसका कल्याण निश्चित ही है। अपना अन्तरात्मा ही अपना मनन-चिन्तन करने से अज्ञान रूप अन्धकार क्षय हो जाता है, इसे व्यवहार से मार्गदर्शक और मुक्ति का साधक है, वही सच्चा गुरू है जो हमेशा साथ रहता है, नमस्कार करते हैं। तारण स्वामी यहाँ निश्चय नय से उस सुबुद्धि रूपी सरस्वती को शुभाशुभ प्रवृत्ति से बचाता, सावधान करता रहता है। अन्तरात्मा का जागरण ही नमस्कार कर रहे हैं, जिसके द्वारा भेदज्ञान होने पर अपना शाश्वत ॐ ह्रीं श्रीं से सद्गुरू का मिलना है।
है शुद्ध,द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण,कुज्ञान और मिथ्यात्वादि से मुक्त,सर्वज्ञ स्वभावी, आगे इसी क्रम में सरस्वती अर्थात् निर्मल बुद्धि को नमस्कार किया है- S केवलज्ञानमयी, अपना ध्रुव स्वभाव दिखाई देता है। ऐसी सुबुद्धि के जागरण होने सरस्वती सास्वती दिस्टं, कमलासने कंठ स्थितं।
Sपर जीव का संसार टिकता ही नहीं है। संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति, अरुचि हो उर्व हियं श्रियं सुख, तिअर्थ प्रति पूर्नितं ॥११॥ जाती है, अपने ममल ध्रुव ज्ञानानंद स्वभाव की रुचि जाग जाती है, अतीन्द्रिय कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया न दिस्टते ।
आनंद और मुक्ति का ही एक मात्र लक्ष्य रहता है। जिसका स्व का अध्ययन, मनन,
2 चिन्तन ही चलता रहता है, जो निरन्तर भीतर बोलती रहती है, जो स्व-पर का, सर्वन्यं मुष वानी च, बुद्धि प्रकास सास्वती नमः ॥१२॥
२ हित-अहित का विवेक कराती है, वही सुबुद्धि रूपी सरस्वती जिनवाणी वन्दनीय कुन्यानं तिमिरं पून, अंजनं न्यान भेषजं । 5 नमस्कार करने योग्य है। केवल दिस्टि सुभावंच, जिन कंठं सास्वती नमः॥१३॥
यहाँ कोई प्रश्न करे कि सच्चे देव में निश्चय से निज शुद्धात्म तत्व को नमस्कार अन्वयार्थ- (सरस्वती सास्वती दिस्ट) सरस्वती अर्थात् निर्मल बुद्धि,
किया और व्यवहार में जिन्होंने उस शुद्धात्म तत्व को उपलब्ध कर लिया है उन्हें विशुद्धमति अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव को देखती है, जो कैसा है (उवं हियं श्रियं ।
नमस्कार किया यह तो ठीक तथा सच्चे गुरू में निश्चय से अन्तरात्मा का जागरण
5 और व्यवहार से वीतरागी साधु को नमस्कार किया, यह भी ठीक था; लेकिन यह १ सुद्ध) ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप से शुद्ध है (तिअर्थं प्रति पूनितं) द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण है "
सरस्वती जिनवाणी में तो एक मात्र सत्शास्त्रही आते हैं.यह सबद्धि कहाँ से आ गई (कमलासने कंठ स्थितं) कमलासन पर कंठ में स्थित है। (कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं) तीनों कुज्ञान से बिल्कुल मुक्त है (मिथ्या छाया न
और इससे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है, यह कुछ समझ में नहीं आया? दिस्टते) जहाँ मिथ्यात्व की छाया भी दिखाई नहीं देती (सर्वन्यं मुष वानीच) सर्वज्ञ
इसका समाधान करते हैं कि पहले तो यह समझो कि बुद्धि किसे कहते हैं? 7 २ अर्थात् केवलज्ञानी तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि वाणी से (बुद्धि प्रकास सास्वती) जिस
मति, श्रुतज्ञान की पर्याय को बुद्धि कहते हैं। इसमें कुमति कुश्रुत की पर्याय कुबुद्धि