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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना ब्राह्मण का लक्ष्य रहा - भोग, सुख एवं सुविधा, और श्रमण का लक्ष्य रहा-त्याग, वैराग्य और विरक्ति । ब्राह्मण के जीवन का लक्ष्य था -संसार में रहकर अधिक से अधिक सुख का उपभोग करना, जबकि श्रमण ने सुख के उपभोगों से विरक्त होकर, आध्यात्मिक सुख और आध्या.त्मक कल्याण को प्राप्त करने का अपना लक्ष्य बनाया। ब्राह्मणवादी चिन्तन के सुख की अन्तिम सीमा स्वर्ग रहा, और श्रमण ने अपने सुख की अन्तिम सीमा को मोक्ष कहा । वास्तव में ब्राह्मण-संस्कृति समाज और राष्ट्र की सस्कृति रही, जबकि श्रमण-संस्कृति व्यक्ति को और अध्यात्मभाव की संस्कृति रही है। संस्कृति के स्वरूप में इतनी अन्तर रेखा के कारण ही संस्कृति दो भागों में विभाजित हा गई।
ब्राह्मण संस्कृति के विकास ने मीमांसादशन, वेदान्त-दशन, वैशेषिक-दर्शन और न्यायदर्शन को जन्म दिया। श्रमण-संस्कृति ने जैन-दर्शन, बौद्ध-दर्शन, सांख्य-दर्शन, योग-दर्शन और आजीवक-दशन को जन्म दिया। ब्राह्मण-संस्कृति का मूल लक्ष्य कर्म-योग पर अधिक रहा और श्रमण-संस्कृति का ज्ञान-योग अथवा संन्यासयोग पर अधिक लक्ष्य रहा है। यद्यपि श्रमण-संस्कृति, श्रमण-धर्म अथवा श्रमण-दशन के नाम से जैन-परंपरा और बौद्ध-परम्परा का ही परिज्ञान होता है, तथापि उसके मूल चिन्तन का अवगाहन किया जाए, तो ज्ञात होगा कि संन्यास-धर्म को मुख्य मानने वाली जितनी भी धाराएँ एव उपधाराएँ हैं, वे सभी संस्कृतियाँ श्रमण-संस्कृति में अन्तभित हो जाती हैं । महावीर के अनुयायो और बुद्ध के अनुयायी इस तथ्य को समवेत स्वर में स्वीकृत करते हैं कि गृहस्थ-जीवन की अपेक्षा श्रमण-जीवन श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ है । श्रमण के विचार और आचार का अनुगमन करने वाली परम्परा श्रमण-संस्कृति कही जाती रही है। सांख्य और योग :
कपिल के सांख्य-सूत्र और पतंजलि के योग-सूत्र संन्यास को जीवन कल्याण के लिए मुख्य धर्म स्वीकार करते हैं। भले ही कपिल ने अपने उच्चतम साधकों के लिए श्रमण शब्द का प्रयोग न किया हो, परन्तु परिव्राजक और संन्यासी तथा योगी शब्द का वहो अर्थ है,
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