Book Title: Shraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Author(s): Kalakumar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 188
________________ गीता और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन १७५ __अपनी बुद्धि से आरम्भ किये हुए निष्काम कर्मों के द्वारा ज्ञान को प्राप्ति कर लेना ज्ञानप्राप्ति का मुख्य या बुद्धिगम्य मार्ग है। परन्तु जो स्वयं इस प्रकार अपनी बुद्धि से ज्ञान प्राप्त न कर सके, उसके लिए अब श्रद्धा का दूसरा मार्ग बतलाते हैं। श्रद्धा: ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा आवश्यक है। श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं है ; हाँ, विश्वास, अन्धविश्वास भी हो सकता है। __ 'सत्यं दधातीति श्रद्धा'-जो सत्य को धारण करे उसे श्रद्धा कहते हैं। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है । यदि श्रद्धा स्थिर हो, तो हमें ज्ञान को प्राप्ति तक पहुँचा देती है। ज्ञान, परम-ज्ञान के रूप में संदेहों से रहित होता है, जब कि बौद्धिक ज्ञान में, जिसमें हम इन्द्रिय-प्रदत्त जानकारी पर और तर्क से निकले निष्कर्षों पर निर्भर हैं, सन्देहों और अविश्वासों का स्थान रहता है। इसलिए ज्ञान तक पहुँचने का मार्ग श्रद्धा और आत्मसंयम में से होकर है। जिस व्यक्ति में श्रद्धा है, जो ज्ञान को पाने में तत्पर है और जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम-शान्ति को प्राप्त करता है।५९ परन्तु जो मनुष्य अज्ञानी है, जिसमें श्रद्धा नहीं है और जो संशयालु स्वभाव का है, वह नष्ट होकर रहता है। संशयालु स्वभाव वाले व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है और न परलोक और न उसे सुख ही प्राप्त हो सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह ज्ञान द्वारा संशयों को नष्ट करदे और श्रद्धा को स्थिर करे। कर्म (चारित्र): गोता के चतुर्थ अध्याय के सिद्धान्त पर यह प्रश्न होता है कि यदि समस्त कर्मों का पर्यवसान ज्ञान है ( ४।३३ ), यदि ज्ञान से ५६. श्रद्धावाल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेगाधिगच्छति ॥ -४।३६ ६०. अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो, न सुखं संशयात्मनः ।। –४१४० ६१. ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । -४१४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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