Book Title: Shraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Author(s): Kalakumar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 218
________________ भा, भाषा एवं साहित्य में श्रमण सस्कृति के स्वर २०५ क्लिष्ट शब्दावली में निर्मित होने के कारण जन-सामान्य उसे समझने में असमर्थ था, अतः उन अल्पज्ञ स्त्रियों और पुरुषों की जानकारी के लिए द्वादश अंगों की रचना प्राकृत में को गई। प्राचीन संस्कृत का द्वितीय उत्थानकाल बड़े गौरव के साथ आरंभ हुआ। इस काल में संस्कृत साहित्य में बड़े महत्व के तथा स्थायी साहित्य का निर्माण आरंभ हो गया। लोगों के बीच यह धारणा व्याप्त हो चली कि किसी भी सिद्धान्त को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उसे संस्कृत भाषा में निबद्ध होना परमावश्यक है। इस विचारधारा से जैन साहित्यकार भी अछूते नहीं रह सके। फलतः संस्कृत में पुनः जैन साहित्य का सर्जन होने लगा। द्वितीय उत्थानकाल में संस्कृत भाषा में सर्वप्रथम रचना वाचकवर्य उमास्वाति का 'तत्त्वार्थ सूत्र' है। उमास्वाति के समय के विषय में अब तक मतभेद है। पं० सुखलालजी ने भी इस मतभेद का निराकरण न करके पहली शताब्दी अथवा तीसरी चौथी-शताब्दी में उनका होना अनुमानित किया है । १४ इसके पश्चात् तो संस्कृत भाषा में जैन साहित्य का सृजन विविध विधाओं में प्रचुर परिमाण में हुआ, यथा टीका, काव्य, कथा, छन्द, अलंकार, व्याकरण, कोष, नाटक, स्तोत्र, ज्योतिष, आयुर्वेद एवं नीति आदि । टीका साहित्य-आचार्य हरिभद्र, शोलांकाचार्य, अभयदेव, मलधारी हेमचन्द्र, मलयगिरि प्रभृति ने आगम साहित्य पर संस्कृत भाषा में टीकाएँ की । जैन साहित्य के अतिरिक्त जैनेतर साहित्य पर भी जैनाचार्यों ने टीकाएं की। पाणिनी के व्याकरण पर शब्दावतार व्यास, दिङ नाग के न्यायप्रवेश पर वृत्ति, श्रीधर की न्यायकंदली पर टीका, नागार्जुन की योगरत्नमाला पर वृत्ति, अक्षपाद के न्यायसूत्र पर टीका, वात्स्यायन के न्यायभाष्य पर टीका, भारद्वाज के वार्तिक पर टीका, श्रीकंठ की न्यायालंकार वृत्ति की टीका तथा मेघदूत, रघुवंश, कादम्बरी, नैषध और कुमारसंभव आदि काव्यग्रन्थों पर भी जैनाचार्यों को सुप्रसिद्ध टीकाएँ हुई हैं। काव्य और कथा साहित्य-काव्यकला के क्षेत्र में जैनाचार्य किसी भी काव्यकार तथा कलाकार से पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने पद्य और गद्य में उच्चकोटि के काव्य का सर्जन किया है। उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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