Book Title: Shraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Author(s): Kalakumar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 216
________________ भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर २०३ जैसा कि पहले बताया जा चका है, ये आगम जीवन और जगत् के विविध-दिश दिव्यज्ञान के अक्षय भंडार हैं। उनमें एक से एक अपूर्व मणि-मुक्ताएँ छिपी पड़ी हैं। उसमें केवल अध्यात्म और वैराग्य के ही उपदेश नहीं हैं, बल्कि धर्म, दर्शन, नीति, सभ्यता, संस्कृति, कर्म, लेश्या, जीव, जगत, आत्मा, भूगोल, खगोल, इतिहास, गणित, संगीत, नाटक, आयुर्वेद आदि जीवन के प्रत्येक पहलुओं को स्पर्श वाले विचार-तत्त्व व्यंजित हैं। ____ गणधरों द्वारा प्रणीत द्वादशांगों के उपरान्त स्थविरों ने उनका पर्याप्त पल्लवन किया। हजारों प्रकरण ग्रन्थ निर्मित हुए। पुनः उसके पश्चात् आगमों के व्याख्या-ग्रन्थ लिखे जाने लगे। वे नियुक्ति, भाष्य और चर्णो के रूप में प्राकृत को व्यापक साहित्य-राशि हैं। इनमें नियुक्ति और भाष्य पद्यबद्ध हैं जबकि चूर्णियाँ गद्यनिबद्ध । नियुक्तिकार द्वितोय भद्रबाहु (विक्रम पाँचवीं-छठी शताब्दी) की ११ नियुक्तियाँ तथा चूर्णीकारों की १७ चूर्णियाँ अद्यावधि उपलब्ध हैं । चूर्णीकारों में मुख्यतः जिनदास गणी महत्तर (सातवीं शती), सिद्धसेन सूरि (१२ वीं शती), प्रलम्ब सूरि एवं अगस्त्यसिंह मुनि उल्लेखनोय हैं । शेष अज्ञात हैं। ग्रन्थ निर्माण की इस प्रक्रिया में श्वेताम्बर आचार्यों की भाँति दिगम्बर आचार्यों ने भी प्राकृत साहित्य का प्रचुर पल्लवन किया है । उनका आद्यग्रन्थ षट्खंडागम है जिसका प्रणयन दूसरी-तीसरी शताब्दी में आचार्य पूष्पदंत भूतवलि द्वारा हुआ है। इसी प्रकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कषाय-प्राभृत है, जिसकी रचना आचार्य गुणधर ने की थी। आचार्य वीरसेन ( वि० नवम शताब्दी ) ने षट्खंडागम पर ७२,००० श्लोक-प्रमाण धवला टीका लिखी । उन्होंने । कषाय-प्राभृत पर भी टीका संरचना आरम्भ की थी, किन्तु २०,००० श्लोक प्रमाण लिखने के अनंत र अपूर्ण ग्रन्थ को ही छोड़कर दिवंगत हो गये, जिसे उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया। यह साठ हजार श्लोक प्रमाण का ग्रन्थ जयधवला के नाम से विख्यात है। विक्रम दूसरी शती में आचार्य कुंदकंद ने प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों का प्रणयन कर अध्यात्म के क्षेत्र में एक नया मोड़ ला दिया। आचार्य नेमिचन्द्र (वि० दशवीं शती) ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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