Book Title: Shraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Author(s): Kalakumar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 186
________________ गोता और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन १७३ रहता है । अत: उसका बन्धन घटता ही है, बढ़ता नहीं । ४८ क्योंकि न तो चक्षु रूपों का बन्धन है और न रूप ही चक्षु के बन्धन हैं । किन्तु वहाँ जो दोनों के प्रत्यय निमित्त से छन्द राग ( आसक्ति ) उत्पन्न होता है, वस्तुतः वही बन्धन है । ४९ अतएव ज्ञानी साधक को देखने में देखना भर होगा, सुनने में सुनना भर होगा जानने में जानना भर होगा, १० अर्थात् वह रूपादि का ज्ञाता द्रष्टा होगा, उनमें रागासक्त नहीं । यहाँ तक कि साधक को किसी वाद में भी आसक्त नहीं होना चाहिए । जो किसी वाद में आसक्त है, उसकी चित्तशुद्धि नहीं हो सकती । ११ अतः साधक जल से लिप्त न होने वाले कमल के समान अनासक्त भाव से विचरे । १२ स्मृति का सार ही अनासक्ति 143 गीता-साधना पद्धति : इहलोक और परलोक में जीवन को निर्मल और सुखद बनाने के लिए तथा पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वैदिक-साधना के तीन विभिन्न मार्ग हैं - ज्ञान, श्रद्धा ( भक्ति, उपासना ) और कर्म । ज्ञान का अर्थ है - अध्यात्मविद्या | अध्यात्मविद्या भगवान् के परमआनन्द को पाने का मार्ग है । यह कोई बौद्धिक अभ्यास या सामा ४८. न सो रज्जति रूपेसु, रूपं दिस्वा पटिस्सतो । " विरत्तचित्तो वेदेति तं च नाज्भोस तिट्ठति ॥ यथास्स पस्सतो रूपं, सेवतो चापि वेदनं । खीयति नोपचीयति, एवं सो चरती सतो ॥ - संयुत्तनिकाय ४।३५।६५ ४६. न चक्खु रूपानं संयोजनं न रूपा चक्खुस्स संयोजनं । 1 यं च तत्थ तदुभयं पटिच्च उपज्जति छन्दरागो तं तत्थ संयोजनं ॥ - संयुक्त ४१३५१२३२ ५०. दिट्ठे दिट्ठमत्त भविस्सति, सुते सुतमत्त' भविस्सति । ..... विञ्ञाते विञ्ञातमत्तं भविस्सति । ५१. निविस्सवादी नहि सुद्धि नायो । ५२. पदुमंडव तोयेन अलिप्यमाणो । ५३. समिद्धि कि सारा ? विमुत्तिसारा ! Jain Education International - संयुत्तनिकाय ४।३५।६५ - सुत्तनिपात ४।५१।१६ १।३।३७ 13 - अंगुत्तरनिकाय हारा४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238