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गोता और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन
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रहता है । अत: उसका बन्धन घटता ही है, बढ़ता नहीं । ४८ क्योंकि न तो चक्षु रूपों का बन्धन है और न रूप ही चक्षु के बन्धन हैं । किन्तु वहाँ जो दोनों के प्रत्यय निमित्त से छन्द राग ( आसक्ति ) उत्पन्न होता है, वस्तुतः वही बन्धन है । ४९ अतएव ज्ञानी साधक को देखने में देखना भर होगा, सुनने में सुनना भर होगा जानने में जानना भर होगा, १० अर्थात् वह रूपादि का ज्ञाता द्रष्टा होगा, उनमें रागासक्त नहीं । यहाँ तक कि साधक को किसी वाद में भी आसक्त नहीं होना चाहिए । जो किसी वाद में आसक्त है, उसकी चित्तशुद्धि नहीं हो सकती । ११ अतः साधक जल से लिप्त न होने वाले कमल के समान अनासक्त भाव से विचरे । १२ स्मृति का सार ही अनासक्ति 143
गीता-साधना पद्धति :
इहलोक और परलोक में जीवन को निर्मल और सुखद बनाने के लिए तथा पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वैदिक-साधना के तीन विभिन्न मार्ग हैं - ज्ञान, श्रद्धा ( भक्ति, उपासना ) और कर्म । ज्ञान का अर्थ है - अध्यात्मविद्या | अध्यात्मविद्या भगवान् के परमआनन्द को पाने का मार्ग है । यह कोई बौद्धिक अभ्यास या सामा
४८. न सो रज्जति रूपेसु, रूपं दिस्वा पटिस्सतो ।
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विरत्तचित्तो वेदेति तं च नाज्भोस तिट्ठति ॥ यथास्स पस्सतो रूपं, सेवतो चापि वेदनं । खीयति नोपचीयति, एवं सो चरती सतो ॥
- संयुत्तनिकाय ४।३५।६५ ४६. न चक्खु रूपानं संयोजनं न रूपा चक्खुस्स संयोजनं ।
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यं च तत्थ तदुभयं पटिच्च उपज्जति छन्दरागो तं तत्थ संयोजनं ॥ - संयुक्त ४१३५१२३२
५०. दिट्ठे दिट्ठमत्त भविस्सति, सुते सुतमत्त' भविस्सति । ..... विञ्ञाते विञ्ञातमत्तं भविस्सति । ५१. निविस्सवादी नहि सुद्धि नायो । ५२. पदुमंडव तोयेन अलिप्यमाणो । ५३. समिद्धि कि सारा ? विमुत्तिसारा !
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- संयुत्तनिकाय ४।३५।६५ - सुत्तनिपात ४।५१।१६ १।३।३७
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- अंगुत्तरनिकाय हारा४
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