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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना हो जाता है ।४° इसलिए कर्म करो, किन्तु मन को दूषित न होने दो। ४१.
यह सब अनासक्ति की महिमा है। अनासक्ति : बौद्धधारा
अस्तित्व के उच्चतर स्तरों पर आरोहण निष्कामकर्म द्वारा हो किया जा सकता है। कर्म में आसक्ति ही संसार का बन्धन है।४२ आसक्त मनुष्य आसक्ति के कारण नाना प्रकार के दुःख पाता है।४3 उसका चित्त चंचल बना रहता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति संसार में अनासक्त होकर विचरण करते हैं, उनका चित्त चंचल नहीं होता,४४ क्योंकि उनके लिए न कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय ।४५ जिसको कर्म के प्रति आसक्ति नहीं है, उसको कर्म का विपाक भी स्पर्श नहीं करता; आसक्तिपूर्वक कर्म करने वाले को ही कर्म विपाक का स्पर्श होता है ।४६ जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पानी नहीं टिकता, उसी प्रकार मुनि दृष्ट, श्रुत एवं मूर्त में आसक्त नहीं होता ।४७ अप्रमत्त साधक रूपों में राग नहीं करता, रूपों को देखकर स्मृतिमान रहता है, विरक्त चित्त से वेदन करता है, उनमें अलग्न-अनासक्त
४०. अण्णाणी पुण रत्तो, सव्वदव्वेसु कम्ममझगदो।
लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममझे जहा लोहं ।। -समयसार २१६ ४१. चित्त न दूषयितव्यं ।
-सूत्रकृतांग टीका १।२।२ ४२. नंदीसंयोजनो लोको।
-सुत्तनिपात १६८१५ ४३. रत्तो रागाधिकरणं विविधं विन्दते दुक्ख । -थेरगाथा १६७३४ ४४. निस्सितस्स चलितं, अनिस्सितस्स चलितं नस्थि। -उदान ८।४ ४५. छन्दे सति पियाप्पियं होति ।
छन्दे असति पियाप्पियं न होति । -दीघनिकाय २।८।३ ४६. नाफुसंतं फुसति, फुसन्तं च ततो फुसं। -संयुत्तनिकाय १११।२२ ४७. उदबिंदु यथापि पोक्खरे, पदुमे वारि यथा न लिप्पति । एवं मुनि नोपलिप्पति, यदिदं दिट्ठसुतं मुतेसुवा ॥
-सुत्तनिपात ४ । ४४।६।
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